क्या ये प्रकृति!!!! मानव देह का शोधन है??

ज्योति दाधीच
“कोरोना ” वैश्विक महामारी ही नहीं, अपितु प्रकृति और मानव देह के लिए संदेश लेकर आई है
कबीलाई सभ्यता से इतर हिंदू सनातनी संस्कृति की महान मनीषी सभ्यता का यह वक्त पुनर्स्थापना जान पड़ती है। आह!! प्रकृति निश्चल, निर्वात, निर्विकार होकर अपनी देह में शुद्ध प्राणवायु संचरित कर रही है ।
पेड़, पौधे, जंगल, वाटिका, जल ,थल और नभ का शुद्धिकरण हो रहा है ।जब पूर्व कालीन धरा के कुछ प्राणी गुफाओं में विक्षिप्त रक्त रंजित मानवों का रिपु बने थे, तब हमकृषि और फल उत्पादन की विधि सीख चुके थे। जब वे कबीलाई युद्ध में पारंगत हो रहे थे, तब हम अपने लिए वस्त्र और शुद्ध भोजन तलाश कर चुके थे।
जब वे अग्नि की ढूंढ में पत्थरों को रगड़ रहे थे, तब हमने नालंदा, विक्रमशिला और तक्षशिला का शिलान्यास कर अपनी संस्कृति को मजबूत आधार दे रहे थे। दुनिया की प्रथम संस्कृति हमारी है । हमारे ऋषि, मनीषियों तपस्वी हरियाली से ओतप्रोत कल-कल निनाद करती सलिला के इर्द-गिर्द योग और तपस्या करते थे, तब कितनी शांति थी।
जर्जर हो चुकी प्रकृति उसी शांति की खोज में इस वक्त इस तरह उथल-पुथल करती आ रही है ।उसने कंक्रीटी अट्टालिएं, वाहनों की भरमार ,निरीह जानवरों का करुण क्रंदन ,पाक सूर्य पर मानव जनित ग्रहण के लिए मानव जाति का निर्माण नहीं किया था, इसे संरक्षित और सुरक्षित बनाये रखने के लिए इस मेधावी मानव देह का निर्माण किया था
“कोरोना ” ने वही सनातनी वक्त हमें लौटा दिया है। यह वक्त है,प्रकृति के शोधन का ।प्रकृति ,भरपूर सुखद शांत आबोहवा में अपने को प्राण युक्त कर रही है । वहीं मानव देह एक स्थान पर रहकर खुद का शोधन भी कर रही है, यही समन्वय वर्तमान और भविष्य के लिए संजीवनी सिद्ध होगी।। शारीरिक सौष्ठव से इतर वैचारिक देह को विस्तार देने की जरूरत है।
हे, प्रकृति मां !! तुम फिर से प्राण युक्त होकर आ जाओ, हमारा मल- मूत्र ,प्रदूषण, अत्याचार ,अनाचार, तुझे रौंदने के लिए पुनः व्यग्र है। तू , तो माता है ना !पृथ्वी मां ,और हम तेरी स्वार्थी संतान ।
इतना होने के बाद भी …..
क्या कभी हम मानव बन पाएंगे?? यक्ष प्रश्न है!!!

-😢😢😢🙏जय माताजी की

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