“सरकार कोशिश कर रही है”

मेरे लिए या शायद आपके लिए भी, इस समय की सबसे बड़ी चुनौती ये है कि हम अंदाज़ा नहीं लगा पा रहे कि ये कब तक चलेगा। पर हां, इतने संसाधन तो हैं कि अगले 5-6 महीने बिना किसी बड़ी समस्या के हम लोग आसानी से अपनी व्यवस्था कर लेंगे। ऐसा नहीं है कि हमने कठिनाईयों का सामना नहीं किया, पर मुझे नहीं लगता ऐसा निर्णय कभी ले पाते।
ऐसा भी नहीं है कि ये पहली बार ऐसा हो रहा है, हुआ होगा। इस से ज्यादा डरावना हुआ होगा। इस समय भी काफी लोगो ने वक़्त की कठोरता को कहीं लिखा होगा, हो रहे अन्याय को कहीं लिखा होगा। सबने पढ़ा भी होगा और कुछ मदद करने की कोशिश भी की होगी। पिछले कुछ दशकों में मनुष्य ने इतनी प्रगति तो की ही है कि अब इसे अमानवीय कहा जाए।
आज लोग सैकड़ों किलोमीटर का रास्ता पैदल, अपने सामान और बच्चों के साथ तय कर रहे हैं। इन्हें ये भी नहीं पता कि इनको आगे खाना मिलेगा भी या नहीं, सोने की जगह मिलेगी भी या नहीं, जिंदा पहुंच पाएंगे भी या नहीं। इस पलायन को आप बेवजह बता कर खारिज़ नहीं कर सकते। इनकी की जिंदगी पहले भी कोई आसान नहीं थी। कुछ तो ऐसा होगा है कि इन्होंने और कठिन रास्ता चुना होगा।
आप चाहे किसी एक घटना को इसके पीछे का मूल कारण बताने की कोशिश करें पर सच तो ये है कि अगर ये जहां ही नहीं होती तो ऐसा कभी नहीं होता।
यकीन मानिए, इस बारे जितना कुछ चल रहा हैं उसका 1% भी आप तक नहीं पहुंच रहा है। ऐसा में इसलिए लिख रहा हूं कि whatsapp पर इनके बारे में आने वाले मेसेजेस की संख्या नगण्य है। आप तक ये सूचना (खबर नहीं लिखा है, खबरों की मायने अब कुछ और हैं) पहुंचना जरूरी है, शायद आप कुछ मदद कर पाएं क्युकी सरकार की कोशिशें जारी है।
ये पलायन ऐसे तो रुकेगा नहीं पर इसे थोड़ा आसान तो करना ही चाहिए। मुझे यकीन है की अगर जनता घर से बाहर निकाल पाती तो सरकार से कुछ उम्मीद रखने कि जरूरत नहीं पड़ती। खाने – पीने और सोने का इंतजाम जनता कर है देती, जनता में संवेदना है।
किसी की कमी बताना और बुराई करने में एक अंतर है। प्रशासन को उसकी कमियां बताना बहुत जरूरी है, पहले भी कई लोग आवाज़ उठाते थे, अब आपकी जिम्मेदारी है। क्योंकि जिनकी जिम्मेदारी थी, वो काफी व्यस्त हैं। उनका कर्तव्य क्या है, उसको परिभाषित तो नहीं कर सकता, पर शायद इतना तो होगा ही कि जनता और सरकार का संवाद स्थापित करे। और हां, संवाद दो तरफा होता है।
राजनीति पहले भी ऐसी ही थी और आज भी मुझे कोई बैर नहीं है। अब नफरत हो गई है लोकतंत्र के चौथे स्तंभ से। जनता की आवाज़ को सामने रखने की जगह सिमटती जा रही है, सरकार तक पहुंचने के रास्तोंका अभाव है।
समाज से उम्मीद भी कम हो गई है क्युकी एक बड़ा तबका या खुद को सरकार का अधिवक्ता मानता है या विपक्ष का। खुदकी पैरवी करनी है याद आएगा शायद, क्युकी बहुत समय हो गया उन्हें अपने कंफर्ट ज़ोन में गए हुए।

अंकुश लढ्ढा

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