सम्मुख लड़ने से डरता ।
चालाकी-धोखेबाज़ी से ,
इधर-उधर नज़रें धरता ।
ऐसे पाखंडी को अपना ,
माने उसकी भूल बड़ी ।
उस पर क्या विश्वास करे जो
रूप बदलता घड़ी-घड़ी ।
अब तो अंतिम करें फ़ैसला,
ऊब गए संधि कर- कर ।
खुली छूट दे दो सेना को ,
मारो दानव चुन-चुनकर ।
– *नटवर पारीक*,डीडवाना