दुर्भाग्यवश अतीत में भारतीय भाषाओं एवं हिन्दी का प्रश्न झूठी समझ और राजनीति में फंस कर उपेक्षित रहा। हम भूल गए कि भाषा के साथ मनुष्य ही नहीं, बल्कि स्व-संस्कृति एवं राष्ट्रीयता का संबंध क्या है? याद रहे पहले भाषा ही हमें समृद्ध एवं स्वाभिमान बनाती है। जिस भाषा को हम जन्म से ही सुनते, जानते हैं और जिस परिवेश में रहते हैं उसी से हम गढ़े जाते हैं। यदि उसी की उपेक्षा कर बचपन से अन्य भाषा का महत्व हो तो एक सशक्त राष्ट्रीयता का निर्माण असंभव है। इस उपेक्षा के कारण न केवल राष्ट्रीयता बल्कि संस्कारों की पौध सुन्दर फुलवारी नहीं बन पा रही है। सीख हमारी साख नहीं बन पा रही है। सोच एवं समझ के दायरे गुमराह प्रतीत होते हैं। आदर्श, सिद्धान्त और जीवनशैली के प्रति बनी नई मान्यताओं ने नये मानक बना लिये हैं।
नई शिक्षा नीति का मुख्य उद्देश्य इस बात से लोगों को रूबरू कराना है कि जब तक वे भारतीय भाषाओं एवं हिन्दी का उपयोग पूरी तरह से नहीं करेंगे तब तक उनका विकास नहीं हो सकता है, उसे राष्ट्रीय गौरव प्राप्त नहीं हो सकेगा। प्रश्न है कि आजादी के सात दशक बीत जाने के बाद भी हम क्यों विदेशी भाषा से चिपके हैं, अपने ही देश में स्व-भाषा इतनी उपेक्षित क्यों है कि उसे अपनाने की सलाह दी जाये। हिन्दी राष्ट्रीयता एवं राष्ट्र का प्रतीक है, उसकी उपेक्षा एक ऐसा प्रदूषण है, एक ऐसा अंधेरा है जिससे छांटने के लिये ईमानदार प्रयत्न करने होंगे। क्योंकि हिन्दी ही भारत को सामाजिक-राजनीतिक-भौगोलिक और भाषायिक दृष्टि से जोड़नेवाली भाषा है। इस दृष्टि से नई शिक्षा नीति में प्रावधान करना समयोचित एवं प्रासंगिक है, स्वागतयोग्य है।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भारत को आत्मनिर्भर बनाने के लिये जुटे हैं, कोई भी राष्ट्र हो या मनुष्य उसकी आत्मनिर्भरता आर्थिक ही नहीं, भावनात्मक और मानसिक भी होती है। केवल धनाढ्य बनने या कोरे आर्थिक विकास कर लेने मात्र से यह नहीं होती। यूरोपीय, अमेरिकी, जर्मनी, जापान, रूसी, कोरियाई आदि देशों के लोगों के विकास, आत्माभिमान और आत्मविश्वास का रहस्य स्व-भाषा के प्रति प्रेम, सम्मान एवं सर्वोच्च प्राथमिकता देना है। वे तमाम विज्ञान-तकनीक और आर्थिकी के साथ अपनी भाषा-संस्कृति के संग जीवंत रूप से गौरव एवं गर्व के साथ खड़े दिखते हैं। हमारे साथ ऐसा नहीं हो रहा है, क्योंकि हमने राष्ट्रीय अस्मिता, स्व-भाषा एवं स्व-संस्कृति का महत्व नहीं समझा, जबकि यही चीज हमें पशु जगत से अलग करती है, हमारी स्वतंत्र पहचान बनाती है, राष्ट्र का गौर बढ़ाती है।
अपनी भाषा ही मजबूती एवं सुदृढ़ प्रतिष्ठा का आधार शिक्षा नीति है। बच्चों के भविष्य की चिंता इसी प्रकाश में करनी चाहिए। यदि बच्चा अपने समाज की भाषा गंभीरतापूर्वक नहीं सीखता तो वह भले ही कितना ही बड़ा आदमी बन जाये, उसके आत्मवान मनुष्य बनने में संदेह है। कुछ राजनीतिज्ञ अपना उल्लू सीधा करने के लिये भाषायी विवाद खड़े करते रहे हैं और वर्तमान में भी कर रहे हैं। वे इस बात की ताक में भी रहते है। डीएमके नेता कनिमोझी की ओर से हिंदी के प्रति दिखाए गए दुराग्रह से इस बात का पता चलता है। ऐसे दुराग्रह के बाद भी यदि सरकार और समाज गंभीरता दिखाएं तो यह ऐतिहासिक मोड़ हो सकता है, हमारी अपनी भाषा को प्रतिष्ठापित करने का सशक्त माध्यम होगा। इसके लिए आवश्यक है कि शिक्षा, संस्कृति और वैश्विक प्रतिष्ठा की दृष्टि से भी अपनी भाषाओं का महत्व समझा जाए। अन्यथा राष्ट्रीय एकता एवं सशक्त भारत का नारा सार्थक नहीं होगा। हिन्दी को सम्मान एवं सुदृढ़ता दिलाने के लिये केन्द्र सरकार के साथ-साथ प्रांतों की सरकारों को भी संकल्पित होना ही होगा। नरेन्द्र मोदी ने विदेशों में हिन्दी की प्रतिष्ठा के अनेक प्रयास किये हैं, लेकिन उनके शासन में देश में यदि हिन्दी को राजभाषा एवं राष्ट्रभाषा के रूप में प्रतिष्ठापित नहीं किया जा सका तो भविष्य में इसकी उपेक्षा के बादल घनघोर ही होंगे, यह एक दिवास्वप्न बनकर रह जायेगा।
नई शिक्षा नीति में अपनी भाषा एवं हिन्दी भाषा की व्यापक प्रतिष्ठा के लिये उदार दृष्टि से चिन्तन किया गया है, जो एक शुभ घटना है एवं इसकी तीव्र अपेक्षा है। क्योंकि यदि देश की एक सर्वमान्य भाषा होती है तो हर प्रांत के व्यक्ति का दूसरे प्रांत के व्यक्ति के साथ सम्पर्क जुड़ सकता है, विकास के रास्ते खुल सकते हैं। देश की एकता एवं संप्रभु अखण्डता के लिये राष्ट्र में अपनी भाषा का होना अत्यन्त आवश्यक है। अतीत के विपरीत लोग अब हिंदी विरोधी के इरादों और तमिल-कन्नड़ की सुरक्षा के नाम पर की जा रही राजनीति को समझते हैं। दरअसल बाजार और रोजगार की बड़ी संभावनाओं के बीच हिंदी विरोध की राजनीति को अब उतना महत्व नहीं मिलता, क्योंकि लोग हिंदी की ताकत को समझते हैं। पहले की तरह उन्हें हिंदी विरोध के नाम पर बरगलाया नहीं जा सकता।
हिन्दी भाषा का मामला भावुकता का नहीं, ठोस यथार्थ का है, राष्ट्रीयता का है। हिन्दी विश्व की एक प्राचीन, समृद्ध तथा महान भाषा होने के साथ ही हमारी राजभाषा भी है, यह हमारे अस्तित्व एवं अस्मिता की भी प्रतीक है, यह हमारी राष्ट्रीयता एवं संस्कृति की भी प्रतीक है। गांधीजी ने राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी की वकालत की थी। वे स्वयं संवाद में हिन्दी को प्राथमिकता देते थे। आजादी के बाद सरकारी काम शीघ्रता से हिन्दी में होने लगे, ऐसा वे चाहते थे। राजनीतिक दलों से अपेक्षा थी कि वे हिन्दी को लेकर ठोस एवं गंभीर कदम उठायेंगे। लेकिन भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति से आक्सीजन लेने वाले दल भी अंग्रेजी में दहाड़ते देखे गये हैं। हिन्दी को वोट मांगने और अंग्रेजी को राज करने की भाषा हम ही बनाए हुए हैं। कुछ लोगों की संकीर्ण मानसिकता है कि केन्द्र में राजनीतिक सक्रियता के लिये अंग्रेजी जरूरी है। ऐसा सोचते वक्त यह भुला दिया जाता है कि श्री नरेन्द्र मोदी की शानदार एवं सुनामी जीत और विश्व में प्रतिष्ठा का माध्यम यही हिन्दी बनी हैं।
चीनी भाषा के बाद हिन्दी विश्व में सबसे अधिक बोली जाने वाली विश्व की दूसरी सबसे बड़ी भाषा है। भारत और अन्य देशों में 70 करोड़ से अधिक लोग हिन्दी बोलते, पढ़ते और लिखते हैं। महात्मा गांधी ने सही कहा था कि राष्ट्र भाषा के बिना राष्ट्र गूंगा है।’ यह कैसी विडम्बना है कि जिस भाषा को कश्मीर से कन्याकुमारी तक सारे भारत में समझा जाता हो, उसकी घोर उपेक्षा हो रही है, नई शिक्षा नीति में इन त्रासद एवं विडम्बनापूर्ण स्थिति को सरकार कुछ ठोस संकल्पों एवं अनूठे प्रयोगों से दूर करने के लिये प्रतिबद्ध हो, हिन्दी को मूल्यवान अधिमान दिया जाये। इसी से देश का गौरव बढ़ेगा, ऐसा हुआ तो एक स्वर्णिम इतिहास का सृजन कहा जायेगा, नई शिक्षा नीति एक नये सूरज के रूप में भारत को सशक्त एवं आलोकिक कर सकेगी। प्रेषकः
(ललित गर्ग)
लेखक, पत्रकार, स्तंभकार
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