अनंत आस्था के केन्द्र और विराट व्यक्तित्व के धनी भारत ज्योति आचार्य तुलसी

दीपावली के दूसरे दिन भाई दूज के दिन हमारे देश में इस शताब्दी के आध्यात्मिक क्षितिज पर एक विलक्षण महापुरुष का जन्म हुआ जिसको सारी दुनिया आचार्य तुलसी के नाम से जानती है ।
मंझला कद गौर वर्ण तेजस्वी नयन के साथ धवल परिधान से झांकता भव्य व्यक्तित्व और आशीर्वाद की मुद्रा में उठा हुआ हाथ उस महापुरुष का साक्षात्कार करवाता है जो इस युग में भगवान महावीर के सक्षम प्रतिनिधि बनकर भारत भूमि पर आये और मानवता के मसीहा बनकर विश्व पटल पर छा गए । जिस समय समूचा देश आजादी के जश्न में सरोबार था और देश में विभाजन की विभिषिका शुरू हो गई तथा चारों तरफ हिन्सा और अशांति का वातावरण बनने का दौर शुरू हो गया उसी समय शांति अहिंसा और नैतिकता की अलख जगाने के आचार्य तुलसी अणुव्रत आन्दोलन का सूत्रपात किया ।
बीसवीं सदी के आध्यात्मिक क्षितिज पर प्रमुखता से उभरने वाले इस महान संत आचार्यश्री तुलसी ने सुप्रसिद्ध जैनाचार्य होते हुए भी अपने को सम्प्रदाय की सीमा-रेखाओं से सदा ऊपर रखा । उनका दृष्टिकोण सदैवअसांप्रदायिक रहा ।
जब लोग उनका परिचय पूछते, तब वे स्वयं अपना परिचय इस तरह से देते थे- ‘मैं सबसे पहले एक मानव हूं, फिर मैं एक धार्मिक व्यक्ति हूं, फिर मैं एक साधनाशील जैन मुनि हूं और उसके बाद तेरापंथ संप्रदाय का आचार्य हूं।’
आचार्य तुलसी सचमुच व्यक्ति नहीं, वे धर्म, दर्शन, कला, साहित्य और संस्कृति के प्रतिनिधि ऋषि-पुरुष थे। उनका संवाद, साहित्य, साधना, सोच, सपने और संकल्प सभी मानवीय-मूल्यों के उत्थान और उन्नयन से जुड़े थे जिनका हर संवाद संदेश बन गया ।
बालवय से संन्यास के पथ पर अग्रसर होकर वे क्रमशः आचार्य, अणुव्रत अणुशास्ता, राष्ट्रसंत एवं मानव कल्याण के पुरोधा के रूप में विख्यात हुए हैं। काल के अनंत प्रवाह में 80 वर्षों का मूल्य बहुत नगण्य होता है, पर आचार्य तुलसी ने उद्देश्यपूर्ण जीवन को जीकर जो ऊंचाइयां एवं उपलब्धियां हासिल की हैं, वे किसी कल्पना के उड़ान से भी अधिक हैं।
हमारे सामने समस्या यह है कि हम कैसे मापें उस आकाश को? कैसे बांधे उस समंदर को? कैसे गिने वर्षा की बूंदों को? आचार्य तुलसी की मानव उत्थान की उपलब्धियां उम्र के पैमानों से इतनी ज्यादा हैं कि उनके आकलन में गणित का हर फॉर्मूला छोटा पड़ जाता है।
जैन धर्म एवं तेरापंथ संप्रदाय से प्रतिबद्ध होने पर भी आचार्य तुलसी का दृष्टिकोण असांप्रदायिक रहा है। उनकी मानवीय संवदेना ने पूरी मानवता को करुणा से भिगोया था यह कहकर कि ‘मैं उस दिन की आशा लिए हूं जिस दिन किसी को फांसी तो क्या, जेल की सजा भी नहीं मिलेगी।’ और इसीलिए वे इंसान को सही मायने में इंसान बनाने और बुराइयों के विरुद्ध संघर्ष में जुटे रहे। वे धर्म को व्यापक बनाने के प्रयास करते रहे।
उन्हें यह चिंता नहीं थी कि 21वीं सदी कैसी होगी? उन्हें चिंता थी कि हमारा कल कैसा होगा? इंसान कैसा होगा? इसीलिए उम्रभर व्यक्तित्व-निर्माण की प्रयोगशाला में प्रयोक्ता बनकर वे एक शुभ-संस्कृति को आकार देते रहे।
वे कहते थे- ‘जैन धर्म मेरी रग-रग में, नस-नस में रमा हुआ है किंतु सांप्रदायिक दृष्टि से नहीं, व्यापक दृष्टि से, क्योंकि मैं संप्रदाय में रहता हूं, पर संप्रदाय मेरे दिमाग में नहीं रहता। मैं सोचता हूं कि मानव जाति को कुछ नया देना है तो सांप्रदायिक दृष्टि से नहीं दिया जा सकता। यही कारण है कि मैंने संप्रदाय की सीमा को अलग रखा और धर्म की सीमा को अलग।’
इसी व्यापक दृष्टिकोण को ध्यान में रखकर आचार्य तुलसी ने असांप्रदायिक धर्म का आंदोलन चलाया, जो जाति, वर्ण, वर्ग, भाषा, प्रांत एवं धर्मगत संकीर्णताओं से ऊपर उठकर मानव जाति को जीवन-मूल्यों के प्रति आकृष्ट कर सके। इस असांप्रदायिक मानव धर्म का नाम है- अणुव्रत आंदोलन।
आचार्य तुलसी ने धार्मिकता के साथ नैतिकता की नई सोच देकर अणुव्रत-दर्शन को प्रस्तुत किया जिसका उद्देश्य था- मानवीय एकता का विकास, सह-अस्तित्व की भावना का विकास, व्यवहार में प्रामाणिकता का विकास, आत्मनिरीक्षण की प्रवृत्ति का विकास व समाज में सही मानदंडों का विकास।
आचार्य तुलसी ने कल्पना की कि 21वीं सदी के भारत का निर्माता मानव होगा और वह अणुव्रती होगा। अणुव्रती गृह संन्यासी नहीं होगा, वह भारत का आम आदमी होगा और एक नए जीवन-दर्शन को लेकर भविष्य का मार्गदर्शन तय करेगा।
आचार्य तुलसी ने संप्रदाय से भी अधिक महत्व मानवता को दिया। मानवता के उत्थान के लिए उन्होंने विविध प्रकार के कार्यक्रम प्रारंभ किए थे जिनमें प्रेक्षाध्यान, जीवन-विज्ञान आदि प्रमुख हैं। उन्होंने नैतिक एवं मानवीय मूल्यों को पोषण देने के लिए जैन विश्वविद्यालय की स्थापना की, करीब 1 लाख किलोमीटर पैदल चले, 100 से अधिक पुस्तकें लिखीं- इन्हीं सब व्यापक गतिविधियों के कारण वे जैनाचार्य की अपेक्षा एक मानवतावादी संत के रूप में अधिक जाने गए।
जैन आचार्य तो वे थे ही, अपने कार्यों से वे ‘जनाचार्य’ भी बन गए थे। जैन, हिन्दू, मुस्लिम, सिख या अन्य संप्रदायों को मानने वाले लोग भी उनमें आस्था रखते थे। आचार्य तुलसी की पहचान बन गई- वे भीड़ में भी सदा अकेले होते, ग्रंथों से घिरे रहकर भी वे निर्ग्रंथ से दिखते और लाखों लोगों के अपनत्व से जुड़कर भी निर्बंधता को जीते।
देश में नैतिक मूल्यों के तेजी से होते हुए ह्रास को देखकर वे बड़े चिंतित थे। उन्होंने यह महसूस किया था कि इस नैतिक पतन को अगर नहीं रोका गया तो राष्ट्र भीतर से खोखला (शक्तिहीन) हो जाएगा।
अणुव्रत आंदोलन का प्रारंभ कर आचार्य तुलसी ने देश में नैतिक विकास का शंखनाद किया। इससे जुड़ी मानवीय एकता, सार्वभौम अहिंसा, सर्वधर्म समन्वय, सापेक्ष चिंतनशैली से विकास की नई फिजाएं आकार लेने लगीं।
आचार्यश्री तुलसी का संपूर्ण जीवन जहां मानवीय-मूल्यों का सुरक्षा प्रहरी था, वहीं वे सर्व-धर्म समभाव के प्रतीक पुरुष थे। सांप्रदायिक कट्टरता को उन्होंने कभी उचित नहीं माना। उनका कहना था कि धर्म का स्थान संप्रदाय से ऊपर है। उन्होंने सभी धर्मगुरुओं को भी सांप्रदायिक आग्रहों को छोड़कर सद्भाव का वातावरण बनाने के लिए प्रेरित किया। सभी धर्म, जाति एवं वर्ग के लोगों को एक मंच पर लाने में वे कामयाब हुए थे।
आचार्य तुलसी ने अणुव्रत को असांप्रदायिक धर्म के रूप में प्रतिष्ठित किया। उनका कथन है- ‘इतिहास में ऐसे धर्मों की चर्चा है जिनके कारण मानव जाति विभक्त हो गई है। जिन्हें निमित्त बनाकर लड़ाइयां लड़ी गई हैं किंतु विभक्त मानव जाति को जोड़ने वाले अथवा संघर्ष को शांति की दिशा देने वाले किसी धर्म की चर्चा नहीं है। क्यों? क्या कोई ऐसा धर्म नहीं हो सकता, जो संसार के सब मनुष्यों को एक सूत्र में बांध सके। अणुव्रत को मैं एक धर्म के रूप में देखता हूं, पर किसी संप्रदाय के साथ इसका गठबंधन नहीं है। इस दृष्टि से मुझे स्वीकार करने में कोई आपत्ति नहीं है कि अणुव्रत धर्म है, पर यह किसी वर्ग विशेष का नहीं। अणुव्रत जीवन को अखंड बनाने की बात करता है।
अणुव्रत के अनुसार ऐसा नहीं हो सकता कि व्यक्ति मंदिर में जाकर भक्त बन जाए और दुकान पर बैठकर क्रूर अन्यायी। वे मानते थे कि भारत की माटी के कण-कण में महापुरुषों के उपदेश की प्रतिध्वनियां हैं। यहां गांव-गांव में मंदिर हैं, मठ हैं, धर्म स्थान हैं, धर्मोपदेशक हैं फिर भी चारित्रिक दुर्बलता का अनुत्तरित प्रश्न क्यों हमारे समक्ष आज भी आक्रांत मुद्रा में खड़ा है?
अणुव्रत की आचार-संहिता से प्रभावित होकर स्वतंत्र भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा कि ‘आज के युग में जबकि मानव अपनी भौतिक उन्नति से चकाचौंध होता दिखाई दे रहा है और जीवन के नैतिक व आध्यात्मिक तत्वों की अवहेलना कर रहा है, वहां अणुव्रत आंदोलन द्वारा न केवल मानव अपना संतुलन बनाए रख सकता है बल्कि भौतिकवाद के विनाशकारी परिणाम से बचने की आशा कर सकता है।’
आचार्य तुलसी सभी के लिए प्रणम्य हैं, आपके विचार जीवन का दर्शन है, संवाद जीने की सही सीख है। यही कारण है कि उन्होंने अपने व्यापक दृष्टिकोण से सभी धर्मों के व्यक्तियों को नैतिक मूल्यों के प्रति आस्थावान बनाया है। वे किसी की व्यक्तिगत आस्था या उपासना पद्धति में हस्तक्षेप नहीं करते।
आचार्य तुलसी ने यह दावा कभी नहीं किया है कि वे इस धरती से भ्रष्टाचार की जड़ें उखाड़ देंगे, परंतु उनका मानना था कि वे सदाचार की प्रेरणा तब तक देते रहेंगे, जब तक कि हर सुबह का सूरज अंधकार को चुनौती देकर प्रकाश की वर्षा करता रहेगा।
आचार्य तुलसी के 107 वी जयंती पर हमारा संकल्प हो कि हम उनके आदर्शों को जीवन में अपनाएंगे और एक आदर्श समाज राष्ट्र निर्माण में नैतिकता और प्रामाणिकता के साथ अणुव्रतो को अपनाकर विश्व शांति के लिए मुहिम चला कर दुनियां को युद्ध की विभिषिका से बचाने का हर संभव प्रयास करेंगे और आचार्य श्री तुलसी को हमारी सच्ची श्रद्धांजलि होगी ।

आलेख प्रस्तुति
*बी एल सामरा नीलम*
सेवा निवृत्त शाखा प्रबंधक भारतीय जीवन बीमा निगम अजमेर

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