लोकतंत्र के बहकावे से
ऐसे बहल जाते हैं
जैसे भूखा बच्चा
सूखे स्तनों से चिपट कर रोना भूल जाता है
हम कितने भोले हैं
पर्दे पर विकास की तस्वीरों को देख
सच पर पड़े हर पर्दे को सच मान लेते हैं
ठीक वैसे ही जैसे
कब्र के ऊपर सजे फूलों की चादर से
ख़ाक हो गई देह को
सजा हुआ जान लेते हैं
हम कितने भोले हैं
जाति, धर्म, नस्ल को
धारक आदमी से बड़ा मानते हैं
बल्कि सच तो यह है
कि इनके सामने आदमी को कुछ भी नहीं मानते हैं
वैसे भी तेज रफ्तार गाड़ियों के सामने
आने वाली जिंदगियों को जिंदगी कहाँ समझा जाता है
हम कितने भोले हैं
आकाशमार्गी आवाजों के आह्वान पर
बिना पर उड़ने की कोशिश करते हैं
जमीन छोड़ने की जिद में
जमीन गवां देते हैं
हम जमीदारों के पास जमीन रख
मृत्यु भोज आयोजित करते हैं
हम कितने भोले हैं
गर कोई हमें भोला कहता है
हम चालाकी ओढ़कर
मूर्खता के पक्ष में खड़े हो जाते हैं
हमें अपनी हर शिनाख्त से परहेज है
हम अपने भोलेपन पर
उसी तरह मोहित और गर्वित हैं
जैसे पागलखाने के पागल
अपने पागलपन को दुनिया की सबसे बड़ी समझ समझते हैं
*रास बिहारी गौड़*