वैचारिकी- शब्द संकट में है

रास बिहारी गौड़
राजनीति सृजनशीलता को प्रभावित करती है। साहित्य राजनैतिक प्रभाव से मुक्त नहीं रह सकता। रहना भी नहीं चाहिए। अगर वह समाज और संवेदना का वाहक है तो परिवेश से आँखे कैसे मूँद सकता है।
पौराणिक आख्यानों से लेकर मध्ययुगीन कट्टरता के दौर में भक्त-कवि पैदा हुए । स्वतंत्रता आंदोलन में कलम ने जन चेतना का बीड़ा उठाया। आजादी को सँवारा..सत्ताओं से सवाल किए ।
यहाँ तक कि आपातकाल में जब अभिव्यति के सारे शेष दरख़्त उखाड़े जा रहे थे….कागज और कलम ने उस आँधी को परिवर्तन की हवा में बदल दिया था। सिख्ख दंगो के दौरान कथा-कहानियों ने ही सत्ता शिखरों का सर शर्म से झुकाया। समय समय पर कबीर, गालिब, टैगौर, दिनकर, निराला, दुष्यंत, धूमिल, मुक्तिबोध, कमलेश्वर, खुशवंतसिंह, नागर्जुन, महादेवी, हमारी आवाज बनते रहे हैं..। इन आवाजों से सत्ताएं डरती रही हैं…। मजबूरी में उन्हें सम्मान देती रही।
आपातकाल के बाद राजनीति ने कलम की ताकत को नकारना शुरू किया या फिर उसमें उसमें प्रयोजित विचार उढलेने शुरू किये। बोफोर्स, राम मंदिर, मंडल कमीशन, बाबरी-विध्वंश, मुंबई धमाके, रथ यात्रा, तक आते-आते कलम में अपने-अपने रंग की स्याही देखने का चलन हो चला था। 2002 के गुजरत दंगो के बाद यह रंग इतना गहरा हो गया कि खून को खून लिखते हुए, खून का रंग सफेद पड़ जाता था।
चूंकि समझौते और अवसरवाद पर टिकी सत्ताएं अपेक्षाकृत कमजोर थी अतः कलम से सीधे मुठभेड़ नहीं कर सकी। लेकिन 2014 के बाद यह अहसास शिद्दत से महसूस किया गया कि स्वच्छंद सरकारों के लिए एकमात्र खतरा कलम ही है। इस बात से पक्ष-विपक्ष सभी दल सहमत थे कि कलम को खुला नहीं छोड़ा जाना चाहिए..।
बस फिर क्या था..। कलम से उसकी स्याही, शब्द और आँसू, छीन जाने लगे। सूचना क्रांति ने शब्द को कम्प्यूटर बक्शे में बंद कर सरकार की सीधी निगरानी में सौंप दिया। लिखने पढ़ने वाले को बौद्धिक विलासी, साहित्यिक अय्याश, अवार्ड वापसी गैंग, आदि आदि विशेषणों के साथ प्रचारित किया गया..। कुलबर्गी, डाबोलकर से लेकर गौरी लंकेश तक कि हत्याओं के पक्ष में प्रयोजित जन समर्थन भी तैयार किया गया।
इस पूरी प्रक्रिया के मूल में- अनैतिक रास्तों से शिखर तक पहुँचने वाली सत्ताएं अपने चेहरे की पहचान से डर रही थी.। पूँजी की चमक सच को धुंधला कर रही थी। समाज अपने खोल में सिमट कर दुनिया से बेखबर हो गया था..। भाषा और साहित्य की अनुपस्थित से अज्ञान का निर्बाध प्रसार होने लगा । साहित्य के नाम पर स्वम्भू प्रशस्ति लेख ही बचे हैं..उनका अपना मंच है, अपनी दुनिया है, अपनी सूची है..।
शब्द संकट में है..संवेदना संकट में है.. साहित्य संकट में है.. समय संकट में है..समाज संकट में है..।
इन सबके संकट में रहने से राजनीति निष्कंटक हो गई है। सत्ता अपने उद्देश्यो में सफल है।

*रास बिहारी गौड़*

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