हमें याद नहीं रहता है कि हमारी ही जीवात्मा ने कितनी बार अधो योनियों में जनम की यातना भोगी है। हमें यह भी ज्ञात नहीं कि अगली बार हमारा जनम कहां होगा – रागी, कोढी, भिखारी, कंगाल, गुलाम, गाय, बैल, बकरी, सूअर आदि किस योनि में या किसी उच्च योनि में। यदि कोई हमें इस जनम में ही बता दे कि हमारे वर्तमान कर्मों के हिसाब से हमारा आगामी जनम अपंग भिखारी, गधे, सूअर आदि योनि में होगा तो हम दहशत से ही मर जाएंगे या आर्तनाद करने लगेंगे कि हमें ऐसे पतन से बचाओ। यहीं कृष्ण कहते हैं कि अपनी ही जीवातमा के शत्रु मत बनो।
अन्य कोई दूसरा मनुष्य तुम्हारी जीवात्मा की गति न तो सुधार सकता है ओर न ही बिगाड़ सकता है। हमारे अपने ही कर्म ऐसा करते हैं। साधु संत तो उद्धार का रास्ता बताते हैं। उस राह पर चलना तो खुद को ही पड़ता है। उस मार्ग पर चलोगे तो उद्धार अवश्य होगा। किंतु हमारे संचित प्रतिकूल संस्कार हमें साधु के मार्ग पर चलने ही नहीं देते हैं। यह चलना संकल्प से ही सम्भव है। आज इस देश में तीस लाख मंदिर हैं, पांच लाख दरगाह हैं, लाखों साधु संत हैं, सैकड़ों कथावाचक हैं, हजारों आध्यातिमक किताबें हैं ; फिर भी अपराध बढ रहे हैं, पाप बढ रहा है, मन-मुटाव, ईष्र्या-द्वेष संक्रमित हो रहे हैं। आखिर क्यों ? इसीलिए कि हम अपनी जीवात्मा की आगामी दुर्गति के लिए चिंतित ही नहीं हैं। सोचते हैं कि मंदिर जाने, आश्रम जाने, तीर्थयात्रा करने, सहस्त्रधारा करा देने आदि से ही सारे खराब कर्म कट जाएंगे। यही हमारी भूल है। यदि ऐसा ही होता तो संसार में एक भी रोगी, गरीब, दुखी, भिखारी आदि नहीं होता – क्याके कि हर मनुष्य मंदिर तो जाता ही है। हर कोई घर में दीया बत्ती तो करता ही है। प्रत्येक मनुष्य अपने अपने भगवान का नाम तो लेता ही है। लाखों लोग साधुओं के पास भी जाते हैं और तीर्थ यात्रा भी करते ही हैं। लेकिन कर्म कहां कटते हैं !
राजा जनक को भी अष्टावक्र जी ने जब उन के पिछले तीन जनम दिखाए तो वे लज्जित हो गए – बोले कि मै ने ऐसे कार्य किए ! भागीरथ का एक पूर्वज राजा को मलेच्छ के घर कोढी के रूप में जन्म लेना पड़ा था। फिर किसी ऋषि ने भागीरथ को सारी बात बताई, पूर्वज के घर का पता बताया। तब वे उन्हें कुरुक्षेत्र लाए ओर तपस्या कराते हुए उनके उद्धार का प्रबंध किया।
जय श्रीकृष्ण !