” गुस्से से लाल आँखों वाला एक वीर ”

आजाद देशों की स्वाधीनता के पीछे उसके वीर सपूतों के लहू से सनी बलिदानों की अनेक कहानियाँ होती है. भारत की आज़ादी के दीवानों की कहानियों में ऐसी हीं एक कहानी है जबरा पहाड़िया उर्फ़ तिलका मांझी की. आज भले हीं स्वतंत्रता का मतलब स्वेच्छाचारिता और भ्रष्टाचारिता जैसी मानसिकता तक सीमित हो गई हो पर कभी इसी देश के जबरा पहाड़िया उर्फ़ तिलका माँझी ने जब अपनी भूमि, अपनी फसलों, अपने वृक्षों पर अंग्रेजों का अधिकार और अपने लोगों पर फिरंगियों और उनके पिट्ठू साहूकारों का अत्याचार देखा तो वे अंग्रेजी सत्ता के खिलाफ़ उठ खड़े हुए. तिलका माँझी के द्वारा किया गया विद्रोह देश की वह पहली आवाज थी जो गुलाम भारत को आज़ाद कराने के लिए अंग्रेजों के खिलाफ उठाई गई थी. यह वो वक़्त था जब भारत अपनी गलतियों और अपने भितरघाती देशद्रोहियों के प्रपंच पर चुपचाप खून के आँसू बहा रहा था. अंग्रेज साम्राज्य निर्लज्ज भितरघातियों संग मिलकर पूरी ताकत से अपना दमनचक्र फैला रहा था. अंग्रेजों के अत्याचार से गाँव शहर थर्रा रहे थे. किसानों से जबरन लगान वसूल किए जाते थे. उसी वक्त जबरा पहाड़िया उर्फ़ तिलका माँझी ने आदिवासियों की सेना बनाकर बनैचरी जोर नामक स्थान से अंग्रेजों के खिलाफ आदिवासी विद्रोह की आव़ाज बुलन्द की थी. जबरा पहाड़िया उर्फ़ तिलका मांझी ग्राम प्रधान था और ब्रितानी राज के जबरन लगान वसूली से क्रुद्ध था. अंग्रेजी शासनकाल में किसानों को उत्पीड़ित कर उनसे लगान उगाहे जाते थे, यह लगानवसूली तब भारत के राजस्व का मुख्य श्रोत था. इस राजस्व वसूली में बिचौलिए भी किसानों के उत्पीड़न में शामिल थे और किसानों से उनके परंपरागत अधिकारों को छीना जा रहा था. अंग्रेजों के इस लूट खसोट का जो भी विरोध करता उसे कुचल दिया जाता था. धूर्त अंग्रेजी सरकार का उद्देश्य अधिक से अधिक भू राजस्व को हड़पना और किसानों को दरिद्र और बर्बाद कर देना था. किसान भूखों मर रहे थे. तब मुँगेर, भागलपुर सहित संथाल परगना के जंगलों और गंगा ब्राह्मी की तराईयों समेत कई नदियों और घाटियों में माँझी की आदिवासी सेना ने अंग्रेजों को ललकारा. तिलका माँझी और उसकी आदिवासी सेना ने उस वक्त यहाँ अंग्रेजों की ऐसी अच्छी खासी ख़ातिरदारी की थी कि उनका जीना हीं हराम कर रखा था. इन दुर्गम जंगलों घाटियों में छुपकर तिलका मांझी के नेतृत्व में आदिवासियों ने भारत के प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम की लड़ाई लड़ी थी. सन 1778 में माँझी और उसकी सेना ने रामगढ़ कैम्प से अंग्रेजों को पूरी तरह खदेड़ कर कैम्प को गोरों से मुक्त करा दिया था. आदिवासी विद्रोह को कुछ ज्यादा हीं फैलते देख कर तब अंग्रेजी सरकार ने अपने स्मार्ट ऑफिसर क्लीवलैंड को मजिस्ट्रेट बनाकर संथालों की मुश्कें कसने के लिए वहाँ भेजा पर राजमहल (भागलपुर) का तेज तर्रार सुपरिंटेंडेंट क्लीव लैंड आज़ादी की इस पहली लड़ाई में तिलका माँझी के सधे हुए तीरों से छलनी होकर मारा गया. उस दौर में यह एक ऐसी घटना थी जिसके बारे में जानकर एक तरफ जहाँ अंग्रेजों के प्राण काँप उठे वहीँ दूसरी तरफ अत्याचारी फिरंगियों की सरकार ने माँझी को पकड़ने के लिए चप्पे चप्पे पर अपनी सेना बैठा दी. हथियारों से लैस अंग्रेजी सेना गोरिल्ला पद्धति में घेराव करते हुए आगे बढ़ने लगी. जिससे माँझी की सेना परेशानियों में घिर गई पर कई-कई दिनों तक भूखे रह कर भी उनलोगों ने न हिम्मत छोड़ी न मुकाबला. किन्तु धूर्त आयरकुट के नेतृत्व में किए गए अंग्रेजों के छापामार हमले में फँसकर आखिरकार तिलका माँझी और उनकी आदिवासी सेना के लोग चारों ओर से घिर गए और गिरफ्तार कर लिए गए. कई योद्धाओं को वहीँ मार डाला गया परन्तु तिलका माँझी को गिरफ्तार करके भागलपुर लाया गया और 13 जनवरी 1785 को पेड़ पर लटका कर उन्हें फाँसी दे दी गई. कहते हैं कि अत्याचारी अंग्रेजों द्वारा दोनों हाथों को रस्सियों में लपेट कर और चार घोड़ों से बाँध कर माँझी को घसीटते हुए भागलपुर लाया गया था. मीलों तक इस प्रकार निर्ममता से घसीटे जाने के बावजूद भी खून से लथपथ माँझी न सिर्फ़ जिंदा थे अपितु क्रोध से लाल हुई आँखों से फिरंगियों को घूर भी रहे थे. (इन्हीं लाल लाल आँखों को देख कर उन्हें “तिलका’’ नाम दिया गया तिलका का शाब्दिक अर्थ गुस्से से लाल आँखों वाला होता है) कड़ी टक्कर खाए हुए जालिम अंग्रेजों ने भागलपुर के चौराहे पर अवस्थित विशाल बरगद के वृक्ष पर ज़बरा पहाड़िया उर्फ़ तिलका माँझी को हज़ारों लोगों की भीड़ के सामने सरेआम फाँसी पर लटका दिया था. यह एक सन्देश भी था कि आईन्दा कोई भारतीय अंग्रेजों से विद्रोह की हिमाकत भी न करे. इस प्रकार माँझी भारत के आदिविद्रोही, प्रथम स्वतंत्रता सेनानी और आज़ादी की लडाई के प्रथम शहीद बने. उनके बाद बिरसा मुंडा समेत संथाल प्रदेश के हजारों आज़ादी के दीवानों ने माँझी के पदचिन्हों पर चलकर विद्रोह किया और ”हांसी हांसी चढ़बो फाँसी..” गाते हुए फाँसी पर चढ़ गए. 11 फ़रवरी 1750 को बिहार के सुल्तानगंज में जन्मे जबरा पहाड़िया उर्फ़ तिलका माँझी भारत माँ के वह पहले सपूत थे जिन्होंने कम साधनों के बावजूद अपनी अद्भुत निडरता, अपूर्व ताकत और वीरता से अंग्रेजों और उनसे मिले हुए सामन्तों व महाजनों के खिलाफ मोर्चा लिया और हँसते हुए शहादत की पहली मिसाल कायम की. भारत के स्वतंत्रता से जुड़े ऐतिहासिक पन्नों में स्थान न मिलने के बावजूद भी पहाड़िया समुदाय के सदियों पुराने लोकगीतों, पुरखों से वंशजों तक चलती चली आ रही कहानियों, कहावतों, जुमलों में जबरा पहाड़िया उर्फ़ तिलका मांझी के समस्त दस्तावेज आज तक भी वैसे के वैसे जीवित हैं. भागलपुर में तिलका माँझी के नाम के अनेक स्मृति चिन्ह आज भी देखे जा सकते हैं.

– कंचन पाठक.
ग्रेटर कैलाश, नई दिल्ली.

परिचय –
नाम – कंचन पाठक
जन्म – 11 फ़रवरी
शिक्षा – कानून, प्राणिविज्ञान और हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत से स्नातकोत्तर
प्रकाशन – सरिता, कादम्बिनी, अहा ज़िन्दगी, सरस सलिल, कथाक्रम, राजभाषा भारती (गृहमंत्रालय की पत्रिका), समाज कल्याण (महिला एवं बाल विकास मंत्रालय), मधुमती (राजस्थान साहित्य अकादमी), अट्टहास, स्पंदन, रूपायन आदि पत्रिकाओं में कविताएँ, आलेख, व्यंग्य समेत दैनिक जागरण, हिन्दुस्तान टाइम्स, अमर उजाला, हमारा मेट्रो, डेल्ही टाइम्स, दैनिक भास्कर, जनसंदेश (मध्यप्रदेश) आदि सौ से अधिक पत्र पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित .. विभिन्न वेब पत्रिकाओं और ब्लॉग में लेखन
पुस्तक – इक कली थी (एकल), सिर्फ़ तुम, पुष्पगंधा, काव्यशाला, कविता अनवरत (संयुक्त) इत्यादि
संपादन – कस्तूरी कंचन, आगमन आदि
सम्मान – ठाकुर प्रसाद सिंह स्मृति सम्मान (लखनऊ), आरसी प्रसाद सिंह सम्मान (बिहार), आगमन साहित्य, तेजस्विनी (दिल्ली), मिथिला महोत्सव सम्मान (बिहार), हिजला मेला महोत्सव सम्मान (झारखण्ड) इत्यादि
संपर्क –
कंचन पाठक
द्वारा विनोद कुमार
जॉइंट कमिश्नर कमर्शियल टैक्सेज,
कमर्शियल टैक्सेज ऑफिस
मधुबनी सर्किल
खादी भण्डार रोड
मधुबनी – 847211
मो. 8969809870

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कंचन पाठक
हाउस नंबर – 207/10 ग्राउंड फ्लोर
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