मन के भाव एवं बुद्धि के विचार तो मानसिक कर्म हैं। शरीर से होने वाले कार्य दैहिक कर्म हैं। इसी तरह वाणी या वचन से कही जाने वाली बातें मौखिक कर्म हैं। आपके शब्द, आपके भाव, आपके विचार आदि सब के सब कर्म हैं – प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष। दृश्य अथवा अदृश्य। इनका प्रभाव जीवात्मा पर पड़ता है। वही प्रभाव उसके आगामी जीवन का निर्धारण करता है। चूंकि मनुष्य को विगत जीवन याद नहीं रहता ओर आगत का आभास नहीं होता है ; इसलिए वह वर्तमान जीवन में अच्छे-बुरे कर्म के प्रति सचेतन नहीं होता है। परमहंस युक्ति गिरि जी के अनुसार मनुष्य के जीवन काल के दौरान मन में पाँच करोड़ विचारों- भावों का प्रवाह हो जाता है। अतः मानसिक कर्म (नकारात्मक या सकारात्मक) हमारे भावी जीवन को सर्वाधिक प्रभावित करते हैं।
त्ुाम पिछले जन्म में दिहाड़ी मजदूर थे। इस जन्म में प्रोफेसर हो गए – यह उच्च गति है। श्यामाचरण लाहिड़ी जी पिछले जन्म में साधु थे। इस जन्म में ‘मुक्त’ हो गए – यह उच्च से आगे की परम गति है।
ऐसे ही कोई विगत जन्म में डाॅक्टर था ; इस जन्म में ठेला चलाता है – यह अधोगति है। रविदास पिछले जनम में ब्राह्मण था। किसी महात्मा का शिष्य था। कोई गलत काम कर दिया। महात्मा बोले कि तू चमार हो जा। उसका अगला जनम चमार के घर हुआ। यह अधोगति है।
क्ृष्ण के कथन का वास्तविक तात्पर्य यह है कि – अपनी जीवात्मा को बार बार शरीर के बंधन में पटकने वाले कर्म करना – स्वयं का शत्रु होना है। अपनी जीवात्मा को पुनर्जनम से मुक्त कराने वाले कार्य करना – खुद का मि़ होना है। हमारी जीवात्मा जब जीव भाव से अथवा जीव की उपाधि से मुक्त हो जाती है तब उस अवस्था को मोक्ष कहते हैं।