भूली बिसरी यादें ,स्मृतियों के झरोखे से

*ऐसे थे हमारे दादा जी*
स्वनाम धन्य, हर दिल अजीज
*सेठ साहब घासी राम जी सामरा*

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हमारे दादा जी की कोई भी फोटो हमारे परिवार के किसी भी सदस्य के पास उपलब्ध नहीं है तथापि वे हम सभी के मन मस्तिष्क और स्मृतियों के झरोखे पर एकदम जीवंत हैं ।*मंझला कद,गौरवर्ण ,भव्यललाट ,
और मेवाड़ की केसरिया पगड़ी से झाँकता हुआ ,सौम्य मुख्यमंडल ,तथा श्वेतपरिधान मे झलकता हुआ , भव्य व्यक्तित्व , उनका सहज ,सरल एवं शिष्टाचार से ओतप्रोत दिव्य स्वरूप हम सभी के मन मस्तिष्क और अंखियों के झरोखे में जीवंत है* । उनकी दिव्य आशीष से आज हमारा परिवार फल फूल कर पल्लवित , पुष्पित और सुरभित हो रहा है । हालांकि उन्होंने सामंतशाही दौर में रियासत कालीन जमींदारी का राजसी ठाठ बाट देखा मगर
गांधी बाबा पूज्य बापू का उन पर ऐसा असर पड़ा कि उनके जीवन का संपूर्ण कायाकल्प हो गया, जिस ठाकुर के मातहत वे मंत्री कामदार थे ,उनके द्वारा प्रजा के शोषण और अत्याचार एवं बेगार प्रथा का पुरजोर विरोध किया । मगर जब ठाकुर तथा युवराज पर जब इसका कोई असर नही हुआ तो उन्होंने ठाकुर के खिलाफ विद्रोह और बगावत कर दी एव॔ उनकी दी हुई जागीर, जमीन, जायदाद और अपने पुश्तैनी घर बार का परित्याग कर वहां से सपरिवार विस्थापित हो गये और मेवाड़ तथा अजमेर मेरवाड़ा के सीमांत गांव आसन ठीकरवास में शरण ली ,जहां रावत राजपूतों के धर्मगुरु आयश जी महाराज ने उनको राजनीतिक शरण प्रदान की और अपने ठिकाने की कामदारी का काम उनको सुपुर्द किया। उनके सपरिवार निवास एवं खानपान की समुचित व्यवस्था के साथ कामदार के पद पर नियुक्त कर पांच रुपया माहवार की तनख्वाह मुकर्रर कर दी।इसके थोड़े ही समय उपरांत पूर्व रियासत के राजा रानी को अपने व्यवहार पर पछतावा हुआ जो शायद दादाजी के सत्याग्रह का प्रभाव था। वे उनको को मनाने के लिए आयश जी महाराज के पास पहुंचे मगर बहुत अनुनय विनय के बाद भी आयश जी ने उन्हें दादाजी को लौटाए जाने से साफ-साफ मना कर दिया , अब ठाकुर साहब अपने धर्म गुरु से तो उलझ कर झगड़ा नही कर सकते थे । सो निराश होकर वापस लौट गये। मगर सामंती अत्याचार ,शोषण और बेगार प्रथा के खिलाफ विरोध प्रदर्शन और बगावत एवं सत्याग्रह के लिए विद्रोह की बहुत बडी कीमत चुका कर दादाजी स्थायी रूप से वही बस गये । आयश जी महाराज का आतिथ्य राजकीय संरक्षण और पांच रुपए माहवार की तनख्वाह का लिखित अनुबंध स्वीकार कर दादा जी आसन ठिकाणे मे कामदार नियुक्त किए गए । आयश जी महाराज और दादा जी बीच उनकी साठ रुपया साल की तनख्वाह और उनको सुपुर्द की गई कामदार की जिम्मेवारी और कोताही पर चेतावनी वाला लिखित अनुबंध आज भी मेरे संग्रह मे सुरक्षित है।हालांकि दादाजी का कोई फोटो तो उपलब्ध नही है मगर उनके द्वारा लिखित ग्रंथ ,साहित्य ,और उनके घोड़े की काठी ,जीण एवं कलम दवात ,बहियां ,डायरी इत्यादि आज भी सुरक्षित रुप से सहेज कर रखी हुई है ।
प्रथम दर्शन और मुलाकात में ही हर किसी को प्रभावित कर अपना बना लेने का चुंबकीय आकर्षण और *बड़ों हुकम* के साथ उनका आत्मीय व्यवहार किसी देवता पुरुष का एहसास करने में सक्षम था ।यद्यपि उनका कोई भी फोटोग्राफ उपलब्ध नहीं है ,क्योंकि उन दिनों फोटोग्राफी केवल राजपरिवार और अभिजात्य वर्ग के रईसों तक ही सीमित थी मगर उनकी छवि हम सभी की आंखों और मन मस्तिष्क में बसी हुई है कि हमारे परिवार के ये दिवंगत सत्पुरुष अपने व्यवहार से, सद्भाव ,संस्कार और संस्कृति की त्रिवेणी बन गए। मेवाड़ की धरा पर चितांबा ठिकाने के कामदार जी ,सेठ साहब शाह मनरूप जी के आंगन में 131 वर्ष पूर्व इकलौते पुत्र के रूप में जन्म होने से परिवार में खुशियों की मानो बरसात हो गई । मनरुप शाह जी मेवाड़ रियासत के सभी दीवानों की तरह भामाशाह के वंशज और ओसवाल कुल के सामरा गोत्र के श्वेतांबर जैन परिवार में उनका जन्म हुआ । उस दिन भारतीय पंचांग के मुताबिक संवत 1947 के माघशीर्ष शुक्ला पंचमी का दिन था , तद्नुसार अंग्रेजी कैलेंडर की तारीख 14 नवंबर थी और इसी दिन प्रयागराज में पंडित मोतीलाल नेहरू के यहां आनंद भवन मे भी इकलौते पुत्र का जन्म हुआ ,जो कालांतर में पंडित जवाहरलाल नेहरू के नाम से हमारे देश के प्रथम प्रधानमंत्री बने । यह समय स्वतंत्रता संग्राम का प्रारंभिक काल था , कांग्रेस की सक्रियता से देश में स्वराज्य , सत्याग्रह और स्वदेशी आंदोलन का सूत्रपात हुआ ।
इसी माहौल में राजस्थान के सुदूर ग्रामीण अंचल में सामंतशाही दौर में मनरुप शाह जी के परिवार में किसी राज परिवार की तरह , उनकी छत्रछाया में दादाजी का पालन पोषण और प्रारंभिक शिक्षा संपन्न हुई । ब्रिटिश शासन में फारसी राजभाषा थी ,इस कारण राजकीय कार्य का संपादन करने हेतु उन्हें पाठशाला में हिंदी के साथ साथ उर्दू भी पढ़ाई जाती थी।
दादाजी के एक चचेरे भाई पर तो गांधी जी का इतना अधिक असर पड़ा कि उन्होंने अपनी महाजनी पोशाक का परित्याग करके हाथ करघे पर बुनी हुई और चरखे पर कताई वाले सूत से बनी खादी की पोशाक धारण कर ली और जीवन पर्यंत गांधी टोपी और अंगरखी के साथ घुटने तक धोती का पहनावा ही अपना लिया क्योंकि गांधी बाबा का कहना था कि हमारे देश की आत्मा गांवों में बसती है और अधिकांश जनसंख्या कृषि में संलग्न है, तो उनका निर्देश समझकर उन्होंने जीवन पर्यंत अपने पहनावे के रूप में गांधीजी जैसी ही घुटनों तक धोती अंगरखी और टोपी को जीवन भर के लिए अपना लिया ।
हमारे फूफा जी जो उस दौर में सनातन धर्म राजकीय महाविद्यालय ब्यावर के विद्यार्थी थे । गांधीजी के आव्हान पर कॉलेज की शिक्षा छोड़कर उनके अनुयायी
बन गए और स्वाधीनता आंदोलन में सक्रिय रुप से भाग लेने लगे। तत्कालीन अनेक राष्ट्रीय नेताओं के साथ उनके घनिष्ठ संपर्क थे । उन्होंने किसानों पर सामंत शाही अत्याचार और बेगार प्रथा का भरपूर विरोध किया तथा कई बार जेल यात्राएं की । आजादी के बाद प्रजामंडल के दौर में उन्हें भीम डिस्ट्रिक्ट बोर्ड का चेयरमैन बनाया गया । तत्पश्चात वे खादी ग्राम उद्योग मंडल के चेयरमैन भी रहे । देश के प्रथम आम चुनाव में कांग्रेस की ओर से उन्हें उस उस क्षेत्र में विधानसभा का टिकट दिया गया मगर देवगढ़ राज परिवार की रानी लक्ष्मी कुमारी चुंडावत ने उनके निवास पर जाकर उन से अनुरोध किया कि चुनाव लड़ने की उनकी इच्छा है ,इस पर उन्होंने तुरंत कह दिया, बाई साहब ,चुनाव आप लड़ो, मुझे कोई आपत्ति नहीं है मगर जब उनका संदेह दूर नहीं हुआ तो उन्होंने कहा,मेरा यह एक भाई की तरफ से राजपूत बहन को वचन है कि मैं जीवन भर कोई चुनाव नहीं लडूंगा। इसके पश्चात वे 20 वर्षों तक निरंतर डिस्ट्रिक्ट बोर्ड की न्याय पंचायत के सरपंच भी रहे मगर जीवन पर्यंत कोई भी चुनाव नही लड़ा। उस दौर में स्नातक शिक्षा प्राप्त करने वाले उस क्षेत्र के वे प्रथम नागरिक थे और मेरा बचपन उनके सान्निध्य मे व्यतीत क्योकि दादाजी ने अपने देहावसान के पूर्व ही मेरी शिक्षा की (भलामण) जिम्मेदारी उन्हे सुपुर्द करते हुए उनसे वचन लिया था कि उनकी कालेज की जो पढ़ाई जो उनके गांधी जी के आंदोलन के कारण पूरी नही हो सकी, वैसा मेरे साथ नही होगा यानि जब तक मै पढ़ना चाहूंगा तब तक मेरी पढ़ाई निर्विग्न जारी रहेगी और ऐसा ही हुआ। महात्मा गांधी के आव्हान पर जिस कालेज मे अपनी पढ़ाई छोड़कर फूफा साहब ने सत्याग्रह आंदोलन में भाग लिया ,उसी कालेज से मैने स्नातक और स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त की और मै अपने सम्पूर्ण ग्राम पंचायत क्षेत्र से पहला ग्रेजुएट बना तथा यह सिलसिला यही पर नही थमा बल्कि मेरे एवं पुत्री दो न केवल पहले साइंस ग्रेजुएट बने और बेटे तथा बेटी दोनों को स्वर्ण पदक भी प्राप्त हुआ कालांतर मे दोनों बेटों के साथ दोनों बहुओं ने भी स्नातकोत्तर पोस्ट ग्रेजुएट डिग्री प्राप्त की इतना ही नहीं हमारे दामाद भी हमारे क्षेत्र के पहले आइ आईटीएन बने तथा IIT Delhi and IIT KHADAG PUR से अपनी दोनों पोस्ट ग्रेजुएट डिग्री प्राप्त की है ,जो ऐसा करने वाले हमारे क्षेत्र से प्रथम युवक हैं और इस पर हम समस्त परिवार जनों को गर्व है। आज हमारे परिवार से MBA भी है और एक अन्य दामाद पोस्ट ग्रेजुएट होने के साथ-साथ CA भी है।
*हम समस्त परिवार जन अपने दादाजी की 131 वी जयंती पर उनकी स्मृतियों का पुण्य स्मरण कर उनके द्वारा प्रदत्त संस्कारों और दिव्य आशीष के लिए नतमस्तक होकर तहे-दिल श्रद्धा सुमन अर्पित करते है।*

सादर श्रद्धांजलि सहित
आलेख प्रस्तुति
*बी एल सामरा ‘नीलम’*
संयोजक ,मेवाड़ गौरव केन्द्र
संस्थापक अध्यक्ष और प्रमुख ट्रस्टी
*विरासत सेवा संस्थान अजमेर*

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