जैसा कि हर बड़ी कथा के साथ होता है, उससे जुड़ी आस्थाएं उसके भाव को अपने निज- विवेक से पढ़ती-गढ़ती रहती हैं। सम्भवतः रामायण के राम के साथ भी यही हुआ है -वह नायक से महानायक, महानायक से परमपुरुष, परमपुरुष से भगवान की यात्राएं करते रहे हैं आज भी कर रहे हैं। यह अलग विषय है कि इसमें किसके क्या निहितार्थ हैं? लेकिन जहाँ तक राम या राम के चरित्र का प्रश्न है, वह मानवीय आचरण की सर्वेश्रेष्ठ आचार संहिता निर्मित करता है। धार्मिक, साहित्यिक, सामाजिक, ऐतिहासिक द्वन्दों से इतर कर्म, ज्ञान और भक्ति का का दुर्लभ सयोंग रचता है।
आइए, कथा-नायक राम के उन्हीं चरित्रों को जानते-समझते कुछ सीखने की कोशिश करते है। मानवीय विकारों पर विजय पाते हुए कैसे जीवन का आदर्श टटोलते हैं।
राम का जन्म वैभव के विराट प्रांगण में होता है। ऋषि विश्वामित्र के साथ शिक्षा ग्रहण करते हुए वे ऋषियो के आश्रमो को राक्षसी शक्तियों दे बचाते हैं अर्थात कि वे ज्ञान की रक्षा के लिए अतिशय ताकत के दुपयोग से लड़ते हैं। वे राजसी वैभव से ज्यादा ज्ञान केंद्र बनी कुटिरों को सींचते हैं। सीता स्वयंवर में अद्वितीय यौद्धा सिद्ध हो जाने के बाद भी शिवभक्त परशुराम के क्रोध के सम्मुख विनम्र बने रहते हैं। उनके चेहरे पर ना विजय का अहंकार होता है ना वरण के प्रति सतही आवेग दिखाई देता है। असामान्य स्थियों में सामान्य रहकर आचरण और गाम्भीर्य का परिचय पौरणिक सन्दर्भो में केवल राम के पास ही मिलता है।
ठीक इसी तरह चौदह वर्षों के वन-गमन समय में वन के कारकों यथा पिता की प्रतिज्ञा, सौतेली माँ की जिद, मंथरा का बहकावा, भरत का राज, इत्यादि के प्रति किसी किस्म की शिकायत घृणा, कष्ट, विषाद, वैमनस्य, प्रतिकार, प्रतिज्ञा के स्थान पर सहजता, स्नेह, सद्भाव, समर्पण, सम्मान सरीखे उच्च मानवीय भाव चेहरे पर तैरते से नजर आते हैं। समूचे वन-प्रवास में मानसिक और शारीरिक कष्टों से अप्रभावित रहकर स्थिर मानस की महत्ता गढ़ते हैं। सीता हरण के समय -” खग मृग है मधुकर श्रेणी, तुम देखी सीता मृगनयनी” अर्थात वे जीव, जंतु, पेड़, पौधे,परिंदे के साथ अपनी जीवित संवेदनाओं को जीते हैं। बाली और रावण सरीखे यौद्धाओं से लड़ते हुए उनके प्रति निज घृणा का वहन नहीं करते। युद्ध के कारणों में राज्य-विस्तार की कोई कामना नहीं दिखाते वरन उसे लोक -कल्याण का आधार देते हुए वैध वंशजों को उत्तराधिकार सौंपते हैं। चाहे अंगद को किष्किन्धा का युवराज बनाना हो या लंका के राज्यभिषेक का तिलक विभीषण के मस्तक पर टाँकना हो। इतना ही नहीं वे अपने विरोधी का उसके विशिष्ट क्षेत्र के लिए समुचित सम्मान भी प्रदान करते दिखते हैं जैसे कि सेतु पूजन में रावण को पंडित के रूप में आमंत्रित करना या पूर्ण पराजय के बाद लक्ष्मण को मरणासन्न रावण के पास शिक्षा ग्रहण करने के लिए भेजना।
पूरे मानस या रामायण में इस तरह के अनेक प्रकरण हैं, जब राम का चरित्र कलुष और अहंकार के बरक्स करुणा और विनम्रता को प्रतिष्ठित करता है। चुंकि राम मर्यादा पुरुषोत्तम हैं, पुरुषों में उत्तम हैं ,अतः मानवीय गुणों की विवेचना का अवकाश सदैव बचा रहता है।
सीता की अग्नि परीक्षा या फिर एक धोबी के कहने पर उसका त्याग सम्भवतः राम के चरित्र का सबसे विवादित या अप्रिय प्रकरण है। यह सच है कि वाल्मीक रामायण में बालकांड और उत्तर कांड नहीं है अतः इस घटना का जिक्र भी नहीं है। लेकिन अलग-अलग भाषा और स्थितियों के हिसाब से तीन सौ से अधिक रामायण का पुर्नसृजन हुआ है (मानस भी उनमें से एक है) और हरेक कथ्य को लेखक ने अपनी सृजनात्मक कल्पना से उत्तरोत्तर श्रेष्ठता या व्यापकता देने की कोशिश की है। यह और बात है पाठक या श्रद्धालु के रूप में, हम वहाँ तक नहीं पहुंच पाते ,साथ ही कुतर्को से स्वयं को प्रमाणित करने की कोशिश भी करते हैं। उदाहरणार्थ आत्ममुग्ध कथावाचक इस घटना की मनगढ़ंत व्याख्या से कभी राम के चरित्र पर आक्रमण करते हैं तो कभी आवश्यक बचाव (यह कहकर इसे अमुक समय में दुर्भावनापूर्ण जोड़ा गया या ऐसा ही कुछ) की मुद्रा में खड़े रहते हैं। इतना ही नहीं, अतिउत्साही ज्ञानी राम के होने और ना होने को लेकर निरर्थक बहस में उलझे रहते हैं। ऐसा करना न केवल उस चरित्र के प्रति कम समझ का परिचायक है वरन हम सृजनकर्ता की निष्ठाओं पर सवाल कर रहे होते हैं।
बहरहाल, मेरा अपना अल्प विवेक कहता है कि कथा का नायक की दया, करुणा, वीरता, विनम्रता, ज्ञान की विराटता के समक्ष काम, क्रोध, मोह, लोभ, त्याग के उच्चतम मानक न केवल अपेक्षित है वरन अपरिहार्य बन जाते हैं।
राम बहु पत्नी समय मे एक पत्नी का व्रत लेते है। कभी किसी अन्य स्त्री की ओर नजर उठा कर नहीं देखते। पत्नी के लिए वह मायावी स्वर्ण मृग के पीछे भागते हैं। वानर भालुओं की फौज के साथ सबसे समृद्ध (सोने की लंका-का अर्थ समृद्धि है) देश को विजित करते हैं। इन सबका अर्थ है राम को सीता से प्रिय कुछ नहीं है । वह उनके लिए प्रेम है, काम या वासना नहीं। वह उनके लिए प्राप्ति है, लोभ या मोह नहीं। उनकी सहयात्री है देवी या दासी नहीं। सीता राम के लिए रूप गर्विता या सौंदर्य की प्रतिमूर्ति नहीं, वरन स्व के तेज का प्रतिबिंब है। एक ऐसा रचनाकार जिसका नायक स्वयं ईश्वर या ईश्वर से बड़ा हो, तब उसके लिए त्याग का प्रतीक वह पत्नी ही हो सकती हैं जिसे उसने अपने होने में ,अपने से बड़ा स्थान स्थान दिया हो। सम्भवतः यह बात लिखने, कहने या पढ़ने से ज्यादा अनुभूत करने की है और उसका यह अर्थ तो कदापि नहीं है कि हम स्वयं को राम की जगह रखकर परीक्षा या परित्याग का कोई विचार पाले, उससे पहले हमें काम, क्रोध, मोह, लोभ पर अनेक विजय पानी होती है..।
राम जीवन आदर्शो की रचना है। यही हमारा अपना निज राम राज्य है। हर अप्रियता का बावजूद परिवार से स्नेह करना है। रास्ते के कोई केवट को पहचान कर उसका सम्बल बनना। अपरिचित सबरी की कुटिया से जूठन चखना। शापित अहिल्या के पाषाण भाव को द्रवित करना। घायल जटायु की आह को सुनना, क्या पता उसके पास हमारी पीड़ाओं का पता हो। मनुष्य के रूप में अपने जीवन को सार्थकता प्रदान करना। यह सब हमें हमारे लोक के पुरषोत्तम राम से मिलता है।
अंत में यह भी सच है कि जिसे हम ईश्वर मान लेते हैं। उसे पूजने लगते हैं। मन्नतें मांगने लगते है। उसके आचरणों को अपने से अलग करके देखते हैं । जबकि राम का चरित्र स्वयं एक शिक्षण है, वहाँ से हमें भ्रातत्व भाव सीखना है। रिश्तों की गर्मी महसूस करनी है। जीवन के सच्चे सूत्र पकड़ने हैं। राम साध्य है, साधन नहीं। अतः इसे साधन बनाने वालों से सावधान रहना है। राम-राम से हे राम की यात्रा करने वाले राम को जानना है।
राम किसी एक धर्म का नाम नहीं है, वह धर्मो से उठकर मानव मात्र का धर्म है। तभी तो उर्दू के बड़े शायर अल्लामा इकबाल ने उनकी शान में यह शेर कहा है-
है राम के वजूद पे हिन्दोस्तां को नाज
अहले नजर समझते हैं उसको इमाम-ए-हिन्द
रास बिहारी गौड़