रोते रोते
मैं बोलना सीख गया
क्या सचमुच
मैं कभी बोल पाया
बोलने के मानी जान पाया
मैं नहीं बोला तब
जब दीवारों पर लगे आइनें बोल रहे थें
मैं नहीं बोला तब
जब सड़क का काला तारकोल चीख रहा था
मैं नहीं बोला तब
जब गमले में कटे पेड़ों का सर रोपा जा रहा था
मैं नहीं बोला तब
जब भाषा की छाती पर
पाँव रखकर
दौड़ने की सीख दी जा रही थी
मैं नहीं बोला तब
जब एक स्त्री के बरक्स
मेरा पुरुष होना पूजा गया
मैं नहीं बोला तब
जब दूसरे के हिस्से की रोटी
मेरे भरे पेट का स्वाद बन गई
मैं सिर्फ़ तब बोला
जब भूख लगी
जब चोट लगी
जब डर लगा
जब अपनी मौत की
आहट सुनाई दी …
मैं कभी नहीं बोला
बोलने की शक्ल में
रोता रहा
आवाज़ें बदल बदल कर
रोता रहा
*रास बिहारी गौड़*