अन्नपूर्णा हो तुम हमारे घर की

अन्न-पूर्णा हो तुम हमारे घर की,
काम भी घर के सारे तुम करती।
कभी प्रेम करती कभी झगड़ती,
सारे दुख: व गम तुम सह जाती।।

हर घर कहते तुझको गृह लक्ष्मी,
कोई कहे रानी व कोई महारानी।
काम करे दिन भर धूप में तपती,
याद आती रोज शाम तक नानी।।

खुशियाँ सारे परिवार को बाॅंटती,
बेटी, बहन और कभी माँ बनती।
पत्नी और सास यह तेरे ही रूप,
विभिन्न प्रकार के रुप तू निभाती।।

घर में माँ बाप की सेवा तू करती,
ससुराल जाकर नया घर बसाती।
शाम सुबह दोपहर खाना पकाती,
अन्नपूर्णा बनके सबको खिलाती।।

रिश्तें परिवार के सभी तू निभाती,
झाड़ू-बर्तन व चूल्हा चौका करती।
ममता के आँचल में बच्चें पालती,
अच्छी गृहणी बनकर दिखलाती।।

रचनाकार ✍️
गणपत लाल उदय, अजमेर राजस्थान
ganapatlaludai77@gmail.com

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