कहते है मुझको यहां सभी लोग मच्छर,
में इंसानों का ख़ून पीता हूं घूम-घूमकर।
घूमता रहता हूं में दिन रात और दोपहर,
भूख मिटाता हूं में उनका ख़ून-चूसकर।।
पुरुष अथवा महिला बच्चें चाहें वो वृद्ध,
पीता हूं में रक्त इनका समझकर शहद।
चीटी-समान हूं पर डरता नही किसी से,
भूल जाता हूं मैं अपनी औकात व हद।।
वैसे तो ये ख़ून आजकल पी रहें है सब,
जाल-झूठ छल कपट कर जी रहें सब।
भूखें भेड़ियों के समान हो रहें है इंसान,
एक-दूसरे से विश्वासघात कर रहें सब।।
डेंगू डायरिया मलेरिया इनका में जनक,
सतर्क पहले करता फिर करता अटैक।
गुनगुनाता आता रागनी ऐसी में सुनाता,
सब जगह घूमता चलता मटक-मटक।।
कोई गुडनाईट मोरटिन कछुएं से डराते,
आलआउट जेट एवं ओडोमोस लगाते।
कोई मच्छरदानी में आराम से सो जाते,
तो कोई ज़हर वाली अगरबत्ती जलाते।।
सैनिक की कलम
गणपत लाल उदय, अजमेर राजस्थान
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