*लोकसभा चुनाव से पहले सब फिर पार्टी में होंगे*
अपने राजनीतिक दलों से टिकट नहीं मिलने पर बगावत कर चुनाव लड़ने वाले नेताओं को जिस तरह यह दल नाम वापस नहीं लेने या रिटायर नहीं होने पर इसे पार्टी विरोधी गतिविधि मानते हुए उन्हें अनुशासन के नाम पर पार्टी से निष्कासित कर देते हैं। वैसे ही अगर कांग्रेस और भाजपा में हिम्मत है,तो उन्हें निष्कासन के साथ ही यह घोषणा भी करनी चाहिए कि इन बागी उम्मीदवारों में से अगर कोई जीत भी गया, तो उनकी पार्टी ना तो उसे वापस शामिल करेगी और न ही सरकार बनाने में उसका समर्थन लेगी।
अब तो ये भी साफ हो चुका है कि बड़े नेता,विशेष रूप से मुख्यमंत्री पद के दावेदार, एक-दूसरे के उम्मीदवारों को निपटाने के लिए अपने सर्मथक नेताओं को खड़ा करते हैं और उन्हें चुनाव लड़ने के लिए भरपूर पैसे देते हैं। मुख्यमंत्री अशोक गहलोत पर तो कांग्रेस के नेता ही ये आरोप खुलकर लगाते हैं कि वो अपनी पकड़ मजबूत रखने के लिए अपने लोगों को खड़ा करते हैं। इस बार भी उनके कई समर्थक बागी के रूप में मैदान में है। तो उधर वसुंधरा राजे के भी कुछ कट्टर समर्थक मैदान से नहीं हटे हैं। जिस ताकत और खर्चे से निर्दलीय लड़ रहे हैं,उससे ये स्पष्ट हो जाता है कि बिना ऊपरी समर्थन सहयोग के यह संभव नहीं हो सकता। अधिकांश बागियों को इस बात का अहसास होता है कि वह जीत तो नहीं पाएंगे, लेकिन पार्टी उम्मीदवार को जरूर हरवा देंगे। ऐसे में हारने वाला क्यों अपने पैसों की बरबादी करेगा?
कांग्रेस और भाजपा दोनों ने ही अपने बागियों को फिलहाल पार्टी से निकाल दिया है। लेकिन इनमें से जो जीत गए, उनके तो वैसे ही वारू-न्यारे हैं। जो हार गए,वो आपको आने वाले दो-तीन महीने में ही फिर से ससम्मान पार्टी में देखेंगे,क्योंकि मई में लोकसभा चुनाव होने हैं और कांग्रेस और भाजपा इस मौके पर फिर अपने दरवाजे इनके लिए खोल देंगे। यानी बगावत,अनुशासनहीनता, निष्कासन अब कोई मायने नहीं रखता। ये महज चुनावी रस्म अदायगी है। जब राजनीति में नैतिकता, विचारधारा, मूल्यों का ही वास्ता नहीं रहा,तो बाकी के बारे में क्या सोचना
*■ओम माथुर■*
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