*कभी* हंसाती है जिंदगी तो कभी रुलाती है
न जाने ये कैसे कैसे गुल खिलाती है।
पतझड़ का मातम नहीं मनाता गुलशन
मत भूल बहारें लौटकर फिर आती है।
मंजिल ढूंढने वाले राही याद ये रखना
कॉटों भरी डगर मंजिल का पता बताती है।
सपने बुनते हैं तो सांसें खिलती हैं
जिंदगी में सपनों का दफन हो जाना मौत कहलाती है।
इस नए दौर में कुछ ऐसा चलन चला है यारो
गिरते का न थामना दुनियादारी कहलाती है।
काली घनेरी रात से घबराना कैसा बन्धु
सुबह होने से पहले रात अधिक गहराती है।
सांस लेने भर को जिंदगी नहीं कहते ‘श्याम’
जले जो दूसरों की खातिर
वो जिंदगी कहलाती है। 00
– श्याम कुमार राई
‘सलुवावाला’