*अभी तक तो फ्रंटफुट पर ही खेल रहे हैं मोदी*

*पूर्ण बहुमत नहीं मिलने के बाद भी सरकार का चेहरा पहले जैसा ही, तरीका और तेवर भी बरकरार*
*नेता विपक्ष के रूप में राहुल गांधी पर नई जिम्मेदारी*

ओम माथुर
*तो,ओम बिरला लोकसभा के अध्यक्ष बन गए। लगातार दूसरी बार अध्यक्ष बनने वाले वो दूसरे नेता हो गए हैं। इसके पहले कांग्रेस के बलराम जाखड़ ने यह उपलब्धि हासिल की थी। बिरला का अध्यक्ष बनना कोई अचरज की बात नहीं है। वह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह के करीबी और विश्वस्त हैं। इसलिए जब उन्हें केंद्रीय मंत्री नहीं बनाया गया, तभी ये कयास लगने लग गए थे कि मोदी उन्हें वापस लोकसभा अध्यक्ष बनाएंगे। इसलिए उनका नाम तय होने के साथ ही उनका अध्यक्ष बनना भी तय हो गया था,क्योंकि भाजपानीत एनडी के पास पर्याप्त बहुमत था। अगर वोटिंग की नौबत आती तो,बिरला को एनडीए के 292 सदस्यों से भी ज्यादा वोट मिल जाते। लेकिन वो ध्वनिमत से ही चुन लिए गए।*
*बिरला के अध्यक्ष बनने के साथ ही मोदी ने एक बार फिर यह संदेश दे दिया है कि भले ही भाजपा इस बार पूर्ण बहुमत से सरकार में नहीं लौटी हो,लेकिन उनके कामकाज का तरीका,तेवर,ताकत और विपक्ष से टकराव सब,वही रहेंगे,जो उनकी पिछली दो सरकारों के दौरान रहे थे। जब भाजपा चुनावों में 303 से घटकर 242 पर आ गई थी,तो आशंका जताई थी कि प्रधानमंत्री मोदी अब सहयोगी दलों-विशेष कर -टीडीपी और जेडीयू- के दबाव में आकर काम करेंगे। लेकिन मंत्रिमंडल के गठन से लेकर मंत्रालय के वितरण और अब लोकसभा अध्यक्ष के चुनाव तक मोदी ने एक बार फिर यह बता दिया है कि उनका काम करने का अपना तरीका है। दूसरों के आगे झुकने का नहीं है। अपने सभी वरिष्ठ नेताओं को वापस मंत्री बनाना और उन्हें फिर वही मंत्रालय देना गठबंधन में मोदी और भाजपा का दबदबा बताता है। भले ही देश में मोदी की गारंटी नहीं चली हो,लेकिन लगता है गठबंधन के दलों ने उनकी गारंटी को मान लिया है। मंत्रिमंडल के गठन के पहले कहा गया था कि तेलुगु देशम और जनता दल यूनाइटेड केंद्रीय मंत्रियों के कोटे में तीन-तीन चार-चार पद मांग रहा है। लेकिन उन्हें सिर्फ एक-एक केंद्रीय मंत्री मिला। यानी वो दबाव बनाने में नाकाम रहे।*
*इसके पीछे टीडीपी के नेता चंद्रबाबू नायडू और जदयू के नेता नीतीश कुमार की केंद्र से ज्यादा अपने राज्यों की राजनीति में रुचि को माना जा सकता है और यही बहुमत नहीं मिलने के बाद भी मोदी की ताकत है। लगता है मोदी से उन्होंने अपने राज्यों के विकास के लिए पर्याप्त पैकेज की गारंटी ली होगी। इसलिए दोनों नेता अब तक मोदी के किसी भी फैसले के खिलाफ नजर नहीं है। नीतीश को तो अगले साल बिहार विधानसभा का चुनाव भी लड़ना है और भाजपा ने उन्हें अभी से अपना नेता मानते हुए उनके नेतृत्व में चुनाव लड़ने का ऐलान कर दिया है। नायडू को भी आंध्र प्रदेश की नई राजधानी बसानी है और जिन लोकलुभावन योजनाओं की विधानसभा चुनाव में घोषणा की थी, उन्हें पूरा करने के लिए पैसा चाहिए। जाहिर है इसके लिए उनकी केंद्र पर निर्भरता रहेगी। ऐसे में दोनों नेता केंद्र में भाजपा के समर्थन में नखरे नहीं करेंगे, तो शायद उन्हें अपने राज्यों में इसका लाभ मिलता रहेगा। लेकिन देखना ये होगा कि दोनों ही नेता अपने राज्यों के लिए पिछड़े राज्यों का दर्जा मांगते रहें हैं,क्या मोदी उन्हें देंगे।*
*लोकसभा अध्यक्ष का महत्व इस कार्यकाल में इसलिए भी ज्यादा रहेगा,क्योंकि अब गठबंधन की सरकार है। जबकि पिछली दो बार मोदी पूर्ण बहुमत की सरकार चला रहे थे। विपक्ष बिरला पर पहले भी निष्पक्ष नहीं रहने का आरोप लगाता रहा है। तब ये आरोप और तीखे हुए थे,जब उन्होंने संसद में खराब आचरण के कारण करीब डेढ़ सौ सांसदों को सस्पेंड किया था। इसमें सर्वाधिक 60 सांसद कांग्रेस के थे। इसके अलावा डीएमके,टीएमसी,कम्युनिस्ट पार्टी, समाजवादी पार्टी, एनसीपी,आरजेडी सहित अन्य दलों के सांसद शामिल थे। हालांकि लोकसभा अध्यक्ष को किसी दल का नहीं माना जाता है। लेकिन व्यवहार में सब जानते हैं कि उसकी भूमिका भी आमतौर पर सरकार के समर्थक की होती है। जहां तक विपक्ष से टकराव का सवाल है,उसे लोकसभा के उपाध्यक्ष पद का नहीं देने की भी मंशा सरकार की नजर आ रही है और इसीलिए अध्यक्ष का निर्विरोध निर्वाचन नहीं हो सका। फिर बिरला ने भी स्पीकर चुनने के तुरंत बाद सदन में इमरजेंसी की निंदा कर दी और इमरजेंसी के दौरान जान गंवाने वालों की याद में 2 मिनट का मौन रखवा दिया। उसके बाद फिर उन पर विपक्ष ने भाजपा के एंजेडा चलाने का आरोप लगा दिया। इससे 2 दिन पहले प्रधानमंत्री मोदी ने भी संसद के बाहर मीडिया से बातचीत करते हुए पहले विपक्ष से सदन चलाने में सहयोग मांगा, वही उसके तुरंत बाद कांग्रेस को कटघरे में खड़ा करते हुए कहा कि आपातकाल देश के लोकतंत्र पर सबसे बड़ा काला धब्बा था। यानी उन्होंने सत्र की शुरुआत के साथ ही टकराव की शुरुआत कर दी है। ऐसे में लगता है संसद के सत्र में आने वाले दिनों में भी कई मुद्दों पर टकराव देखने को मिलेगा। हालांकि राहुल गांधी ने अपने भाषण में कहा कि उन्हें उम्मीद है कि बिरला विपक्ष की आवाज को दबने नहीं देंगे। राहुल गांधी के रूप में लोकसभा को 10 साल बाद नेता विपक्ष मिला है। इससे राहुल की जिम्मेदारी भी बढ़ गई है, क्योंकि नेता विपक्ष से राष्ट्रीय व महत्वपूर्ण मुद्दों पर सोच समझकर बोलने की उम्मीद रहती है। साथ ही वह विदेशों में भी सरकार की आलोचना करने से बचते हैं। जबकि राहुल पर भाजपा आरोप लगाती रही है कि वह महत्वपूर्ण मुद्दों पर गैर जिम्मेदाराना बयान देते हैं और विदेशों में जाकर भारत की आलोचना करते हैं। देखना होगा कि राहुल किस तरह नई भूमिका को निभाते हैं। यह उनके लिए खुद को परिपक्व और बड़ा नेता साबित करने का भी महत्वपूर्ण अवसर है।*
*9351415379*
*● ओम माथुर ●*

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