*कविता-विमर्श*

बड़ा शोर होता है कि कविता यह है, वह है, चेतना है, बकवास है, विलास है,आदि आदि। कविता क्या है या नहीं है ..? यह विषय अकादमिक हो सकता है लेकिन अगर इसे भाषा और संवेदना के स्तर पर समझा जाए तो यह लिखने वाले और पढ़ने-सुनने वाले को जीवित होने का बोध देती है .. धरती पर जीवन का पता देती बस ..!
कविता से इतर जीवन के जितने भी उपकरण हैं वे हमें धीरे या तेज किसी ना किसी अंत की ओर ले जाते हैं जबकि कविता किसी शुरुआत की कामना से रची जाती है ..।
यह अलग विमर्श हो सकता है कि अमुक कविता कविता है या नहीं या अमुक कथ्य कविता की विषयवस्तु हो सकता है या नही…इस सबके मूल में कई कारक सम्भव है, फिर भी यदि वह लिखने- पढ़ने वाले को अपने से बाहर देख सकने वाली आँखें देती है या आँखो में अंधेरे को चीरने की शक्ति देती है तो वह किसी भी विधान, शैली, भाषा में रची जाए उसे कविता माना जाएगा।
कविता लिख पाना सबके लिए सम्भव नहीं हो पाता लेकिन पढ़ना सबके लिए सम्भव है। एक बार फिर कहाँ, क्यों और कैसे सरीखे प्रश्न बेमानी हो जाते हैं क्योंकि कविता एक अदृश्य भूख है जो जिसका होना आदमी को दृष्टि देता है ,आदमी होने की समझ देता है।
मेरा मानना है कि कविता लिखने वाले से कविता पढ़ने वाला अधिक व्यापक एवं समृद्ध होता है क्योंकि वह विभिन्न संवेदनाओं से अपनी दृष्टि या संवेदना बुनता है जबकि कविता रचने वाले का अपनी सीमित वलय होता है। यहाँ कविता पढ़ने वाले यानि पाठक की बात कर रहा हूँ। कविता सुनना भी श्रेयस्कर है किंतु सुना हुआ कथ्य उतना भीतर तक नहीं धँसता जितना पढ़ा हुआ वाक्यांश असर करता है। सुनते समय सुनाने वाले का चेहरा, आस पास का परिवेश, रिक्त विचारों का आवागमन हमारे साथ रहता है, जबकि पढ़ते वक्त हमारे सामने सीधे शब्द और उनके अर्थ होते हैं जो हमें उसी दिशा में आगे धकेलते हैं।
आप-हम कह सकते हैं कि कविता पढ़कर या जानकर स्थूल रूप से हम कुछ नहीं पाते लेकिन सूक्ष्म प्राप्ति का आकार इतना बड़ा होता है कि उसे किसी खाँचे में फ़िट नहीं किया जा सकता। वे लोग जो किताबें या कविता पढ़ते हैं, कभी उनका चेहरा पढ़ने की कोशिश करना , वहाँ सुख-दुःख की केअनगिन पृष्ठ बिखरे होंगे और वे लोग जो कविता से परहेज़ करते हैं उनके चेहरे के ख़ालीपन को देखना शायद कविता की ज़रूरत समझ में आ जाए।
यद्यपि यह विषय रुचि से ज़्यादा वैचारिक अकर्मण्यता का है, बावजूद इसके हमें यह मानना ही होगा कि मनुष्य प्रजाति को मनुष्य बनाए रखने में कविता हमेशा मशाल बनकर जलती रही यह अलग बात है कि कुछ या एक बड़ा वर्ग अंधेरो में ही अपना होना खोजता रहा है।
कुल मिलाकर कविता की क़ीमत उस सुख में हैं, जो देर तक नदी में पाँव डाले रखने से मिलता है। जो बारिश की आहट में गुनगुनाने से मिलता है। जो खिड़की से झांकती दो आँखो के संदेश पढ़ने में मिलता है। जो छत पर लेटे-लेटे सितारों से बतियाने में मिलता है। किसी पर्वत पर चढ़कर सूरज को निहारने से मिलता है।
यह समझना भी भूल होगी कि कविता केवल सुखद अहसासों की सरिता है। वहाँ खारे आँसुओं का झरना भी उसी शिद्दत से बहता है।कविता पढ़ते हुए हम मौत के पलों को जान सकते हैं। युद्ध के धमाकों को अपने भीतर महसूस करते हैं। निवाला मुँह में देते समय हमारे सामने सैकड़ों भूखे पेट खड़े हो जाते हैं। झोपड़ी को देखकर आँखो महलों के पत्थर चुभने लगते हैं। आदमी तो आदमी पेड़,परिंदो की पीड़ाओं से व्यथित होने लगते हैं। माँ के भीतर पल रहे भ्रूण की आवाज सुन सकते हैं।मौत के बाद के सन्नाटों में अपना चेहरा देख सकते हैं।कह सकते है कि ज़िंदगी के मायने या ज़िंदगी के हर सम्भव शेड को देख सकते हैं। आसान भाषा ज़िंदगी को पढ़ने लिए कविता को पढ़ना ज़रूरी है। बिना कविता पढ़े या जाने हम ज़िंदगी जिए बग़ैर इस दुनिया से चले जाएँगे।

*रास बिहारी गौड़*

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