“खबर के सौदागर और व्हाट्सएप की नैतिकता”

सुरेन्द्र जोशी
आज का दौर तकनीक का है, जहां संचार के साधनों ने हमारी जिंदगी आसान कर दी है। लेकिन साहब, इस ‘आसान जिंदगी’ ने हमारी नैतिकता और समझदारी को भी टिफिन में पैक करके कहीं दफन कर दिया है। पहले जब किसी को अपनी खबर अखबार में छपवानी होती थी, तो एक खास जिम्मेदारी और शालीनता का प्रदर्शन होता था। बाकायदा प्रेस नोट बनता था, अखबार के दफ्तर जाया जाता था, और वहां आदरपूर्वक निवेदन किया जाता था कि “भाई, हमारी खबर को अच्छे से छाप दीजिए।”
लेकिन अब? अब तो भाई साहब, व्हाट्सएप और ईमेल ने सब कुछ “डिजिटल ठसक” में बदल दिया है। प्रेस नोट भेजने वाला अब हाथ में कागज लेकर दफ्तर जाने का कष्ट नहीं करता। व्हाट्सएप पर मैसेज धकेल देता है और सोचता है कि अब सारी जिम्मेदारी पत्रकार की है। जब खबर छप जाए, तो वाहवाही बटोरो; और अगर छप न पाए, तो फोन करके शिकायत करना शुरू कर दो।
व्हाट्सएप के इस महान “डाकिए” ने मानो नैतिकता की ऐसी-तैसी कर दी है। जिस आदर और समर्पण से पहले खबरें छपती थीं, वह अब “फॉरवर्डेड मेसेज” का सस्ता संस्करण बनकर रह गया है। साहब, बात यह नहीं है कि तकनीक ने काम आसान कर दिया। बात यह है कि तकनीक ने हमें इतना आत्ममुग्ध और गैर-जिम्मेदार बना दिया है कि अब न तो दफ्तर जाने की जहमत उठानी है और न ही छूटे हुए काम की जिम्मेदारी लेनी है।
जरा सोचिए, पत्रकार क्या चौबीस घंटे व्हाट्सएप पर ही आंखें गड़ाए बैठे रहेंगे? क्या उनके पास और कोई काम नहीं है? खबर भेजने के बाद कम से कम यह तो देख लेना चाहिए कि वह सही से पहुंची या नहीं। लेकिन नहीं, अब तो लोग खबर छपने की अपेक्षा रखते हैं, मगर इसके लिए निवेदन करने का शिष्टाचार भूल जाते हैं।
इन “व्हाट्सएप जर्नलिज्म” के पैरोकारों के लिए यह व्यंग्यात्मक सवाल उठता है – जब आप अपनी खबर के लिए थोड़ी भी जहमत उठाने को तैयार नहीं, तो उसे छपवाने का अधिकार कैसे रखते हैं? खबर छपवाने की इच्छा है, मगर सम्मान और मेहनत से परहेज है।
तो साहब, इन व्हाट्सएप के योद्धाओं को बस इतना कहना है –
“अगर छपना है, तो झुकना भी सीखो। वरना आपकी खबर आपके इनबॉक्स में ही दम तोड़ देगी।”

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