
ये चार अस्तित्व हैं, शब्द नहीं। ये हमारे जीवन से जुड़े हुए हैं। जीव का आधार हैं। जीव को पदार्थ से उठा कर परमार्थ तक ले जाने के माध्यम हैं।
ओम् तो अनादि काल से ऊर्जा का अनादि स्रोत है। ऊर्जा निकलते रहने से जो आवाज होती है उसे हम ओम् का नाद कहते हैं। विज्ञान में ऊर्जा के आदि स्रोत को महापरमाणु या सुपर एटम कहा जाता है। ऐसे ही वहां नाद को महास्फोट कहते हैं। दोनों ही यह मानते हैं कि आदि स्रोत से ऊर्जा की दो धाराएँ निकलती हैं – पहली सृजन की और दूसरी ज्ञान की। सृजन वाली धारा के भी दो वर्ग हैं – जीव और अजीव। जीव में प्रणव की प्राण ऊर्जा होती है। अजीव में परमाणु ऊर्जा होती है।
अब वापस ओम् की बात करते हैं। पूरे ब्रह्मांड में ओम् का नाद व्याप्त है। नाद यानि सूक्ष्मतम ध्वनि या स्फोट। भौतिक विज्ञान जिसे महास्फोट (विस्फोट नहीं) कहता है उसे हमारे वैदिक दर्शन में अनादि नाद कहा गया है। यह सर्वव्यापी ऊर्जा की आवाज है। नासा के वैज्ञानिकों ने इस ऊर्जा की तरंगों को पकड़ कर उनका ध्वनिकरण किया तो ‘हुम्म’ जैसा नाद सुनाई दिया। हुम्म यानि ह, उ, म, या, अ, उ, म। इसी को योगीजन समाधि की अवस्था में स्वयं के अतिचेतन मन में सुनते हैं। वहां यह सोहम्, ओम्, अउम् की तरह सुनाई पड़ता है। ध्यान की गहरी अवस्था में भी ऐसा सुनना सम्भव है। फिर इसी के सहारे साधक ऊपर चढ़ते हुए आज्ञा चक्र से सहस्त्रार चक्र तक पहुंचता है। इसका मतलब है कि हमारी चेतना वहां पहुंच जाती है जहां उसका सम्पर्क ब्रह्मांडीय सत्ता से जुड़ जाता है।
ओम के इसी स्फोट की गूंज को ओंकार कहते हैं। जैसे घण्टे-घंटियों की टंकार, पायल की झंकार और नगाड़े की नक्कार, वैसे ही ओम् का ओंकार। यही ओंकार शब्द रूपी ब्रह्म है। इसी को जीवन दायी ऊर्जा होने के कारण प्रणव कहा गया है। प्रणव शब्द का अर्थ है – जीवन देने वाली सत्ता । यह शब्द प्रणु से बना है जिसका अर्थ होता है प्राणवान। प्राण ही जीवन का आधार है। यह प्राण शक्ति सम्पूर्ण जीव जगत में व्याप्त है। शरीर में यह दस स्थानों पर सक्रिय रहती है। प्राण शक्ति ही हमें नाक से साँस खींचने के लिए सक्षम बनाए रखती है। शरीर में इसका निवास स्थान मेरुदण्ड का सबसे नीचे वाला हिस्सा होता है जिसे मूलाधार चक्र कहते हैं। यहां से तीन धाराएँ ऊपर उठती हैं। दो तो नाक के दाएँ-बाएँ नथुनों में जाती हैं। इसीलिए हम कभी दाएँ नथुने से और कभी बाएँ नथुने से श्वास खींचते हैं या लेते हैं। तीसरी धारा आज्ञा चक्र से होती हुई कपाल तक जाती है। योगी जन नाक से श्वास लेना छोड़ कर इसी मूल धारा (सुषुम्ना) के सहारे जीवित रहते हैं।
यह प्राण शक्ति शरीर में जीव को जीवित रखती है। चेतन शक्ति हमें अणु से लेकर ब्रह्मांड तक का बोध करा सकती है। इस चेतन शक्ति के केंद्र को ही आत्मा कहते हैं। आत्मा शब्द का मतलब है – जो सर्वव्यापी है, जिसकी गति सर्वत्र है। परमात्मा इसी का परम रूप है, वैसे ही जैसे अणु का परम है परमाणु।