जो कल तक बिकाऊ थे, आज होते तो कोई नहीं पूछता
करीब डेढ़ माह से सिनेमाघरों में कमाई के रिकॉर्ड तोड़ रही साउथ की मूवी “पुष्पा 2” ने दुनिया भर में 2000 करोड़ के आसपास का कारोबार करके एक कीर्तिमान स्थापित कर लिया है। व्यापार के मामले में भले “पुष्पा 2” अव्वल है, लेकिन वर्तमान में चल रहे फिल्मी ट्रेंड से कला, कलात्मकता, अदाकारी और मानवीय सृजशीलता विलुप्त अथवा समाप्त होती सी प्रतीत होने लगी है। तकनीक इतनी ज्यादा हावी हो गई है कि कलाकारों को किसी मॉडल की तरह पोज़ देने से ज्यादा कोई काम बचा नहीं है। एआई तकनीक ने बचीखुची सृजनात्मकता को और पाताल में भेजने के इंतजाम कर दिए हैं। गीतों में ऑटो ट्यूनर ने रस खत्म कर दिया। संगीत से मेलोडी गायब है तो गीतों से पोएट्री लुप्त है। जिन्हें ए-क्लास फिल्म कहते हैं उनमें सी-ग्रेड संवाद हिट हो रहे। “पुष्पा नाम सुन के फ्लॉवर समझे क्या, फायर है मैं” जैसे स्तर के संवाद बरसों से एक्शन पैक्ड बी व सी ग्रेड मसाला फिल्मों में सुनते ही आ रहे हैं। मगर जीवन-दर्शन से परे सड़कछाप संवाद अब तथाकथित ए-ग्रेड सिनेमा का हिस्सा बन गए हैं। यूँ कहें कि अब सी-ग्रेड या बी-ग्रेड फिल्में ही ए-ग्रेड समझी जाने लगी हैं। ऐसे में कल्पना करना मुश्किल है कि फिर असल ए-ग्रेड सिनेमा अब कैसा होना चाहिए!!
भारतीय फिल्म दर्शकों का हर पीढी अंतराल के बाद पसंद बदलने का चलन रहा है। टेस्ट हर 10-15 साल में बदल रहा है। जिस ज़माने में देव आनंद जैसे औसत दर्जे की कद काठी के लोग अपनी लपूझन्ना सी चाल और डिफरेंट ड्रेसिंग स्टाइल के साथ ग्लैमर वर्ल्ड में आये थे, तब एक शुरुआत थी। उनसे तुलना करने को उनके पहले का कोई सुपर स्टार नहीं था। हालांकि सिनेमा उनसे भी बरसों पहले से बन रहा था, मगर सुपर स्टारडम की परिभाषा देव आनंद से शुरू मानी जाती है। मगर आज के परिपेक्ष्य में देखें तो लगता है “गाइड” को छोड़ कर कोई फ़िल्म कल्ट सिनेमा नहीं कही जा सकती। मगर तत्कालीन मसाला फिल्में भी उच्च स्तरीय होती थीं। पुष्पा, बाहुबली आदि फिल्मों की आर्थिक सफलता के समान उस दौर के मुद्रा मूल्यों के मुताबित अनेक फिल्मों ने बड़ी कमाई की। मगर, आज वे फिल्में फिर उसी शैली में बनाई जाएं तो फ्लॉप हो जाएंगी। देव आनंद ऐसी असफलता का स्वाद कई बार चख चुके थे। बतौर युवा नायक अपने कैरियर की समाप्ति के बाद “लश्कर”, “लव एट टाइम स्क्वायर”, “चार्जशीट”, “सेंसर”, “रिटर्न ऑफ ज्वेल थीफ” जैसी तमाम फिल्में औंधे मुंह गिरीं, क्योंकि फ़िल्म निर्माण शैली बदल चुकी थी। तत्कालीन युवा पीढ़ी के दर्शकों की पसंद बदल चुकी थी। मगर देव आनंद तब भी 1950-60 के दशक का पैटर्न अपनाए हुए थे। यही हाल मनोज कुमार की “क्लर्क”, “संतोष” तथा “कलयुग और रामायण” सरीखी फिल्मों के साथ हुआ था।
बल्कि आज यदि देव आनंद, दिलीप कुमार, राजेश खन्ना आदि अपने-अपने ज़माने के सुपर स्टार पुनः उसी शक्ल-सूरत और अदाओं के साथ जन्म लेकर फिल्मों में आने की कोशिश करें तो असफल हो जाएंगे। स्टारडम दूर की बात, काम भी शायद ही मिले। उस दौर के तौर और चलन खत्म होने के बाद जब मिथुन चक्रवर्ती जैसे सी-ग्रेड फिल्मों के नायकों का सिक्का जमा तो लगा कि दर्शकों के टेस्ट को आखिर हो क्या गया है। इंटेलिजेंट मूवीज फ्लॉप हो रही हैं और फूहड़ता धन बटोर रही है। फिर राहुल रॉय जैसों ने आकर मॉडर्न इश्क़ की परिभाषा गढ़ी तो “क़यामत से क़यामत तक”, “जान तेरे नाम” टाइप की फिल्में पसंद की जाने लगीं, 90 के दशक का हर विद्यार्थी खुद को हीरो हीरोइन समझने लगा। उससे पहले अमिताभ, शशी कपूर, शत्रुघ्न सिन्हा, धमेंद्र, जीतेन्द्र, विनोद खन्ना/मेहरा, फिरोज़ खान आदि के दौर की “लॉस्ट एंड फाउंड” पैटर्न की स्टोरीज, या शाकाल, मोगेम्बो, तेजा टाइप के जेंटलमैन विलेन वाली स्टोरीज का चलन रहा।
आज यदि धर्मेंद्र, शत्रुघ्न सिन्हा, अमरीश पुरी, करण कपूर, मंदाकिनी स्टारर 80 के दशक वाली “लोहा” फ़िल्म के पैटर्न पर फिल्में बनें तो यकीनन फ्लॉप हो जाएं। ना लोग आज “कर्मा” को पसंद करें, ना आज “एलाने जंग, जानी दुश्मन, तहलका, आंधी-तूफान” टाइप की फिल्में चल सकें। बीच मे करण जौहर, सूरज बड़जात्या या आदित्य चोपड़ा ने “कभी खुशी कभी गम, कुछ कुछ होता है, हम आपके हैं कौन” जैसी सॉफ्ट फैमिली ड्रामा एवं नए जमाने के लव बर्ड्स की प्रेम कहानियां परोसीं, जो कमर्शियली हिट हुईं। मगर आप तुलना करें कि ऐसे फैमिली ड्रामा “घर एक मंदिर, अवतार, अमृत, कहानी घर घर की” आदि फिल्में शाहरुख खान से पहली पीढी के अदाकारों ने भी दीं। वे सब भी अपने ज़माने की सुपर हिट या हिट फिल्में थीं, मगर दोनों दौर के फैमिली ड्रामे रचने का पैटर्न बदल गया था। “घर एक मंदिर” गरीब घर की हिट स्टोरी थी तो “कभी खुशी कभी ग़म” या “हम अपके हैं कौन” ह्यूज फ्रेम में गढ़ी गई रईस घरानों की रंग बिरंगी स्टोरीज़। आज हालात ये हैं कि दोनों में से किसी भी पैटर्न पर फैमिली ड्रामा रच दो, फ्लॉप हो जाएगा। बडजात्या ग्रुप ने बरसों से कोई बड़ी फैमिली ड्रामा नहीं दी जो ब्लॉकबस्टर हो। अब चलन “वॉर, पुष्पा, पठान” जैसी अजीबो-गरीब फिल्मों का है; जिनमें घटनाक्रम इतनी तेजी से गुजरते हैं कि दर्शकों को सोचने को कुछ नहीं मिलता। समझना तो बहुत दूर की बात है। हीरो की सहूलियत के हिसाब से दृश्य गढ़े जा रहे हैं। नायक को तकलीफ में कभी दिखाना नहीं है, नायक पर कोई वार कर नहीं सकता, नायक एक बार सिर्फ पैर जमीन पर पटकता दो बीस-तीस फुट दूर खड़े पचास गुंडे 40 फुट दूर जाकर गिरते हैं। वीडियो गेम जैसे एक्शन व स्टंट दृश्य बनावटी से हैं। मगर इन जैसी अनेक बेसिर-पैर के सृजन के बाद भी बात वही पीढ़ी अंतराल की आती है। आज का दर्शक वर्ग वीडियो गेम और गेमिंग एप्प्स की तकनीकी फंतासी के वशीभूत इस विशुद्ध धूतक को मनोरंजन मान कर इन्हें ब्लॉकबस्टर बना रहा है। “पुष्पा 2” कल्ट सिनेमा नहीं है। नसीरुद्दीन शाह ने “शोले” को भी कल्ट फ़िल्म नहीं माना। उनका कहना भी गलत नहीं है। सिर्फ कमर्शियली ब्लॉकबस्टर होना किसी फिल्म के कल्ट फ़िल्म हो जाने की मापनी नहीं। असली कल्ट फ़िल्म वही है जो भले नायक-विहीन है मगर अच्छे अदाकारों से भरी हुई है, भले आर्थिक दृष्टिकोण से फ्लॉप है मगर अपनी कहानी और प्रस्तुति से कलात्मक ऊंचाई छूती है। जिसे सिर्फ समीक्षक ही नहीं आलोचक भी भरपूर प्यार व तारीफ दें, वही फ़िल्म कल्ट की श्रेणी में रखी जाती है। मुझे याद है मिथुन की पहली फ़िल्म “मृगया” जो इस सी ग्रेड फिल्मों के सुपर स्टार की पहली फ़िल्म थी और एक काले रंग के आम से दिखने वाले लड़के को राष्ट्रीय पुरस्कार दिलवा गई थी।
आज से दस-बीस साल बाद जब फिर पैटर्न बदलेगा तो उस दौर के दर्शक, निर्देशक, कला मर्मग्य आदि बुद्धिवान लोग अचरज कर रहे होंगे कि ऐसी सिर-खपाऊ “पुष्पा 2” आखिर ब्लॉकबस्टर कैसे बनी। तब शायद आम दर्शक के टेस्ट को ही कोसा जा रहा होगा।
उधर कुछ दूसरी तरह का सिनेमा भी बीच बीच में प्रयोग में लाया जाता रहा, लेकिन इक्का-दुक्का को छोड़ कर वह प्रयोग भी बेकार गए।
हिस्टॉरिक ड्रामा भी आधुनिक जामे में परोसा जाने लगा था। एक ज़माना था जब राजघरानों को कहानी का आधार बना कर “राजमहल”, “धर्मवीर”, “बगावत” जैसी मल्टी स्टारर फिल्में अपने रोचक कथानक, गीत संगीत के कारण दर्शकों को खींच लेती थीं। रोमन लड़ाकों “ग्लेडिएटर्स” की तरह धर्मेंद्र, जीतेन्द्र या विनोद खन्ना को प्रस्तुत करके उस ज़माने के हिसाब से नयापन दिया गया था तो 1970-80 के दशक में प्रयोग सफल रहे।मगर एक टाइम में वह फार्मूला भी असफल होने लगा और बड़े बड़े सितारों से सजी “सल्तनत” 1986 में फ्लॉप हो गई थी। ऐसे में 21वीं सदी एक चौथाई निकल जाने के बाद आज वैसा सिनेमा रचा जाएगा तो उस शैली को नकार दिया जाना तय है। ईमानदारी से समीक्षा हो तो लगेगा कि जिस दौर की कहानी दिखाई का रही है, परिवेश उस दौर का नहीं है। साउथ की RRR भले हिट हो गई, मगर ब्लॉकबस्टर नहीं हो सकी। स्वयं को सर्वश्रेष्ठ फिल्मी ज्ञानी मानने वाले स्तंभकार स्वर्गीय जयप्रकाश चौकसे ने भी यही गलतफहमी पाली थी कि वह फिल्मों की हर नब्ज़ से वाकिफ हैं और एक कहानी लिख दी। उनकी कहानी पर स्वतंत्रता संग्राम और आजादी पूर्व की एक प्रेम कथा गढ़ी गई थी, फ़िल्म का नाम रखा “वो तेरा नाम था”। रजत बेदी, परमीता काटकर मुख्य भूमिका में थे। तीसरे दिन मजबूरी में टॉकीज वालों को फ़िल्म उतारनी पड़ी क्योंकि एक दर्शक भी मिलना मुश्किल था। मसला वही कि कथा किसी और दौर की और प्रस्तुति व परिवेश में आधुनिकता का तड़का। वही हाल रणबीर कपूर की “सांवरिया” का हुआ। मुस्लिम परंपराओं और मुस्लिम प्रेमी-युगल की कहानी को ब्रिटिश ओपेरा की तरह रच कर जो खिचड़ी पकाई, वह दर्शकों को हजम नहीं हुई। सलमान खान व मिथुन अभिनीत 2010 की डिज़ास्टर “वीर” की दुर्गति सभी ने देखी है।
अब शायद अगली पीढ़ी वह दौर देखे कि आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI) की मदद से काल्पनिक शक्लें गढ़ कर, एनिमेटेड किरदारों को असली इंसान जैसा दिखा कर कम्प्यूटर पर ही फ़िल्में बना दी जाएं निर्देशक, डी.ओ.पी., सिमेटोग्राफर, प्रोडक्शन मैनेजर, आर्ट डायरेक्टर, आदि का काम ही कहीं खत्म ना हो जाये। ऐसा भी हो कि शायद तकीनीकी उच्च शिक्षा लेकर भविष्य की युवा पीढ़ी घर पर स्वयं ही कम्प्यूटर पर सिनेमा सृजन करके सोशल साइट्स पर रिलीज कर रही हो। वैसे भी आज के ज़माने में रील्स बनाने के जुनून ने ऐसा इशारा दे ही दिया है। जैसे सिंगल स्क्रीन सिनेमा का वजूद खत्म हो गया, शायद 20-30 साल बाद मल्टीप्लेक्स भी खत्म हो जाएं।
—-अमित टण्डन, अजमेर—-