*उम्मीदों का शव*

रास बिहारी गौड़

यह 2013 का वर्ष था । राष्ट्रवाद  का नया  अवतार आकार ले रहा था। तात्कालिक सरकार अपने नेतृत्व, नीति और नियामकों को लेकर दिग्भ्रमित थी। विपक्ष अवसर की ठीक तलाश में था कि तभी  दिल्ली की सड़कों पर एक आंदोलन उभरा और देखते-देखते देश की आवाज बन गया।

      बिल्कुल शुरू में गांधी की तस्वीर के सामने आंदोलन के चेहरों ने आश्वस्ति भी दी कि इनका पथ गांधी की प्रेरणा है और देश को एक बार फिर गांधी के नए संस्करण की जरूरत है लेकिन कुछ ही दिन बीते होंगे कि चेहरे पर लगा गांधी का मुखौटा उतरना चालू हो गया। अन्ना हजारे से लेकर बाबा रामदेव, केजरीवाल, किरण बेदी, प्रशांत भूषण, योगेंद्र यादव सब के सब एक अवसर की तलाश में एकजुट होते नजर आए। इनमें कुछ वाम तो कुछ दक्षिण से संचालित हो रहे थे। इस सबने, उस समय के संगठनात्मक विपक्ष को अतिरिक्त ताकत दी और वह केंद्रीय सत्ता पर बड़ी ताकत के साथ काबिज हो गया। इस बीच दिल्ली की स्थानीय सत्ता आंदोलन के सबसे सम्मोहक चेहरे केजरीवाल के पास आ गई। शेष कोई राज्यपाल, कोई मंत्री तो कोई अपने पुराने काम पर लौट गए गोया सबने अपना मकसद हासिल कर लिया हो। इसी दौरान मुख्यमंत्रियों की कुर्सी के पीछे की दीवारों से गांधी की तस्वीर हटा दी गई, मानो वहपीछे से सत्ता की कमीज खींचकर उसे उसका होना याद दिलाती हो। कांग्रेस को पता ही नहीं चला कि उसके नीचे से खिंची जमीन एक बड़े गड्ढे में तब्दील हो चुकी है और राजनीति का पूरा चेहरा बदल चुका है, जहाँ किसी भी मानवीय  विमर्श के लिए अवकाश नहीं बचा है।
         बाद के चुनाव होते रहे। राजनीति की उठापटक में कोई  जीतता रहा तो कोई हारता रहा। भ्रष्टाचार, प्रलोभन, धर्म, जाति आदि नारे पूरी बेशर्मी के साथ भारतीय जन मानस के विवेक को हरने लगे। चूंकि  यह सब लोकतांत्रिक रास्ते से हो रहा था अतः कह सकते हैं लोकतंत्र की भारतीय अवधारणाएं धराशायी होने लगी। आने वाले वर्षों में दौर कुछ ऐसा आया कि पूरी दुनिया ही इन सतही आकर्षण में कैद होकर राजनीति को नए सिरे से परिभाषित करने लगी।
        अभी ताजा चुनाव परिणाम का मूल्यांकन किसी के जीतने हारने से नहीं अपितु व्यापक रूप उस उम्मीद के मर जाने से किया जाना चाहिए, जिसे आवाज बनाकर हम नागरिक अधिकारों की मांग कर सकते थे।
       दुनिया के इतिहास पर नजर डाले तो यही दिखता है जिस देश या समाज मे उम्मीदें कलुषित हुई हैं वहाँ अंधेरे की आहट ने उजालो को डराया है। ठीक उस वक्त जब भारत का आम-जन मोक्ष की कामना में अपने वर्तमान को नियति मान बैठा है, आवाजों को शोर और शोर को आवाज कहने लगा है, सादगी ढोंग और ढोंग पूजनीय हो चुका है, तब एक पूरी पीढ़ी जिसने गांधी के समय को थोड़ा-बहुत किताबों या जीवन मे जिया है , वह अपने नैराश्य के साथ अवसान की प्रतीक्षा कर रही है।
*रास बिहारी गौड़*

Leave a Comment

This site is protected by reCAPTCHA and the Google Privacy Policy and Terms of Service apply.

error: Content is protected !!