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आत्मा के लिए 6000 साल पुरानी भाषा में एक शब्द था एटमैन। इसके बाद जर्मनी भाषा में यही शब्द हो गया एटम यानि सांस लेना। एटमैन का मतलब भी था सांस लेना। फिर पुरानी अंग्रेजी में यही शब्द हो गया एथम जिसका मतलब है सांस लेना या आत्मा। इसके जैसे ही हिब्रू भाषा में आत्मा के लिए एक शब्द मिलता है नेफ़ेश जिसका अर्थ है सांस लेना। पुरानी अरबी भाषा में आत्मा के लिए शब्द मिलता है नफ़्स और रूह तथा इन दोनों के ही अर्थ हैं सांस लेना।
इस तरह आत्मा शब्द का अर्थ पहले मूल रूप से था सांस लेना। इसके बाद ऋग्वेद में यानि 4000 साल पहले एटमैन शब्द ही रूपांतरित हो कर बन गया आत्मन। आत्मन का अर्थ है – जिसकी गति यानि प्राण सब जगह हो और जो सब जगह व्याप्त हो। ऋग्वेद में ही यह कहा गया है ‘प्राण वै सत्यम’ यानि प्राण ही सत्य है। इस तरह आत्मा और प्राण को एक माना गया।
प्रश्न उपनिषद में कहा गया है कि प्राण चेतना की महत्वपूर्ण शक्ति है। हम सांस के जरिए प्राण तक पहुंच सकते हैं अर्थात श्वास का निरंतर एकाग्र अवलोकन हमें प्राण तक पहुंचा सकता है और यही प्राण हमारे मन को आत्मा तक ले जाता है। मन की जो चौथी अवस्था अतिचेतन है वही आत्मा है। तैतरीय उपनिषद में मन को भी ब्रह्म कहा गया है क्योंकि यह मन प्राण शक्ति के सहारे पूरे ब्रह्मांड में फैल जाता है।
उधर मांडूक्य उपनिषद में आत्मा को ही ब्रह्म कह दिया गया अर्थात अयम् आत्मा ब्रह्म। यहां आत्मा को चेतना शक्ति से भी पूर्ण माना गया अर्थात यहां आत्मा की दो शक्तियां हो गई – प्राण और चेतना। प्राण शक्ति हमें जीवित रखती है और चेतना हमें सारे संसार का ज्ञान करती है। इसी कारण तैतरीय उपनिषद में ऋषि ने कह दिया प्रज्ञानं ब्रह्म यानि प्रज्ञान (उच्च ज्ञान) ही ब्रह्म है अर्थात सारी वस्तुओं का ज्ञान करा देने वाली शक्ति ही ब्रह्म है। उधर शिव सूत्र में आत्मा के लिए कहा गया है चैतन्य आत्मा यानि आत्मा चेतनामयी है। चेतना खेती शब्द से आया है और खेती का अर्थ है ज्ञान। तो चेतना का अर्थ हुआ हमारी बोध शक्ति। इस तरह प्राण, चेतना, आत्मा और ब्रह्म को एक ही माना गया है।
अब रह गया जीव। तो बृहदारण्यक उपनिषद में जीव और ब्रह्म को एक ही कहा गया है। जिस तरह प्रकाश की किरण और उसका कण फोटोन एक ही है अलग-अलग नहीं, जिस तरह इलेक्ट्रॉन कण और प्रकाश की तरंग दोनों एक ही है अलग-अलग नहीं, इसी तरह ब्रह्म और उसकी सूक्षमतम इकाई जीव एक ही है अलग-अलग नहीं। तो इस जीव में ही आत्मा है, चेतना है और प्राण शक्ति है। इन तीनों शक्तियों से युक्त यह जीव ही ब्रह्म की सूक्ष्मतम इकाई है।
अणु विज्ञान के अनुसार जिस तरह प्रोटॉन, इलेक्ट्रॉन न्यूट्रॉन और नाभिक से मिलकर परमाणु बनता है उसी तरह प्राण, शक्ति, चेतना, आत्मा और जीव से मिलकर एक संपूर्ण जीव इकाई बनती है।
निष्कर्ष – आत्मा की दो शक्तियां हैं – चेतना और प्राण। आत्मा अपने पदम रूप में परमात्मा या ब्रह्म है। पदम रूप का अर्थ है एक ही आत्मा संसार के सारे जीवों में भी होती है यानि आत्मा के व्यापक सांसारिक रूप को ही परमात्मा कह दिया गया है। यह आत्मा सर्वव्यापक है, यह न कहीं आता है न कहीं जाता है। जैसे ही जीव शरीर में जन्म लेता है वह इस आत्मा, प्राण और चेतना के साथ जुड़ जाता है और जैसे ही शरीर का अवसान होता है तो वह इस सबसे मुक्त हो जाता है।
जो गुरूदेव ने दिखाया – सर्कल (चक्र) में प्रकाश का गोला यही आत्मा है। इसके भीतर हजारों सर्कल हैं और यहां कभी-कभी श्वास जैसी अनुभूति होती है – यही प्राण शक्ति है। श्वास सीधा कपाल में टकराता है। श्वास कि अनुभूति एक साथ नाभि, हृदय के दोनों तरफ, आज्ञा चक्र पर, कपाल में और मेरुदंड में होती है। अणु से भी छोटा मन शरीर से बाहर निकल कर आकाश जैसा फैल जाता है। फिर हमें अपने ही मन में सारे आकाश के चांद-तारे दिखाई देने लगते हैं। हमारे सामने ही कभी-कभी हम बैठे हुए नज़र आते हैं। यह जीव है या सूक्ष्म शरीर है जिसके मुख्य वर्ण होते हैं लाल या लाल-पीला मिला हुआ या हल्का गुलाबी। गुरुदेव ने दिखाया चेतना का वर्ण हीरे की कनी जैसा श्वेत, प्राण का वर्ण हल्का गुलाबी, श्वास का वर्ण नीला या श्यामल-नीला कह सकते हैं। अहंकार का वर्ण हरा और मन का वर्ण लगभग पूरे चांद जैसा। गुरुदेव ने इसी प्रकाश में ही सैकड़ों देवी-देवताओं के दर्शन कराए। यह चेतना कि ज्ञान शक्ति है। इस तरह विदेशी भाषाओं में आत्मा को प्राण शक्ति कहा गया है और भारतीय दर्शन में इसे प्राणमय चेतन शक्ति बताया गया है। कुल मिला कर आत्मा का अर्थ है प्राणमयी चेतन शक्ति।