भागवत की हिन्दू एकता से ही विश्वगुरु बन सकेंगे

हिंदू एकता ही समाज, राष्ट्र एवं विश्व में शांति, सद्भाव और प्रगति को सुनिश्चित करती है। साथ ही, यह राष्ट्र की सुरक्षा और विकास के लिए भी ज़रूरी है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) प्रमुख मोहन भागवत ने रविवार को हिंदू समाज को एकजुट करने के महत्व पर जोर देते हुए कहा कि यह देश का ‘‘जिम्मेदार’’ समाज है जो मानता है कि एकता में ही विविधता समाहित है। भागवत का हिन्दू एकता पर जोर देना न केवल प्रासंगिक है बल्कि यह समय की जरूरत है। क्योंकि लम्बे समय से हिन्दू समाज को तोड़ने की कोशिशों, पडोसी देशों के हिन्दू-विरोधी साजिशों एवं षड़यंत्रों के कारण हिन्दू समाज को संगठित करना जरूरी हो गया है। इस दृष्टि से राष्ट्र-पुरोधा मोहन भागवत का आह्वान एक शक्ति देता है जिसकी रोशनी एक समूची परंपरा एवं संस्कृति को उद्भासित होने का अवसर मिल रहा है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के इतिहास में कुछ ऐसे विरल सरसंघचालक हुए हैं, संघ के सरसंचालकों की समृद्ध एवं शालीन परंपरा में वर्तमान का बहुचर्चित नाम है मोहन भागवत। उनकी विरलता या महत्ता के प्रमुख मानक हैं- सशक्त राष्ट्रीयता, हिन्दुत्व और लोकहितकारी प्रवृत्तियां। इन तीन सोपानों के आधार पर वे महत्ता के ऊंचे शिखर पर आरूढ़ हो गए। उन्होंने हिंदुत्व की नयी व्याख्याएं दी हैं और उनका ताजा उद्बोधन हिन्दू एकता की नई व्याख्या करते हुए न केवल देश को मजबूत बना रहा है बल्कि भारत को विश्वगुरु बनने की ओर अग्रसर कर रहा है। हिन्दू एकता से ही विश्वशान्ति, विश्वसमृध्दि, विश्वसमन्वय और विश्वएकता संभव। हिन्दू एकता का किसी से विरोध नहीं है। यह सर्वेषां अविरोधेन् है। हिन्दू के लिए सारा विश्व एक कुटुम्ब है। हिन्दू वसुधैव कुटुम्बकम् को मानता है।
भारत को यदि पड़ोसी शत्रुओं के हाथ में जाने से बचाना है, इस्लामी जेहादी आतंकवादियों से देश की रक्षा करनी है, इस गृहयुद्ध से देश बचाना है, भारत को अखण्ड और एकात्म रखना है तो इसके लिए हिन्दू एकता अत्यावश्यक है। हिन्दू एकता में न केवल देश का बल्कि सम्पूर्ण मानव जाति का हित समाया हुआ है। यद्यपि भारत आज आजाद है; पर हिन्दू समाज आज भी आजाद नहीं है। हिन्दू की गुलामी को दूर करने के लिए हिन्दू एकता आवश्यक है, इसके लिये सभी हिन्दुओं को अपनी जाति, भाषा, प्रान्त, सम्प्रदाय व राजनीतिक दलों के भेदभाव को भूलकर हिन्दू के रूप में एक छत के नीचे आना आवश्यक है तभी हम अपने देश को एक रख पायेंगे और देश की आजादी की रक्षा कर पायेंगे। मोहन भागवत ने अपनी बात को अधिक स्पष्ट करते हुए कहा, भारत सिर्फ भूगोल नहीं है; भारत की एक प्रकृति है। कुछ लोग इन मूल्यों के अनुसार नहीं रह सके और उन्होंने एक अलग देश बना लिया। लेकिन जो लोग स्वाभाविक रूप से यहीं रह गए, उन्होंने भारत के इस सार को अपना लिया। और यह सार क्या है? यह हिंदू समाज है, जो दुनिया की विविधता को स्वीकार करके फलता-फूलता है। हम कहते हैं ‘विविधता में एकता’, लेकिन हिंदू समाज समझता है कि विविधता ही एकता है। भागवत ने जिस सत्य को उजागर किया है, वह हजारों साल पहले भी सत्य था और आज भी उतना ही सत्य है। बल्कि नई परिस्थितियों एवं राजनीतिक स्थितियों के साथ उसकी उपयोगिता और अधिक बढ़ी है। क्योंकि भारत से निकले सभी संप्रदायों का जो सामूहिक मूल्यबोध है, उसका नाम ‘हिंदुत्व’ है। इसलिए संघ हिंदू समाज को संगठित, अजेय और सामर्थ्य-संपन्न बनाना चाहता है। इस कार्य को संपूर्णता तक पहुंचाना ही संघ का उद्देश्य है।
भागवत ने कहा कि भारत में कोई भी सम्राटों और महाराजाओं को याद नहीं करता, बल्कि एक ऐसे राजा को याद करता है जो अपने पिता के वचन को पूरा करने के लिए 14 साल के वनवास पर चला गया-यह स्पष्ट रूप से भगवान श्रीराम का संदर्भ था, और वह व्यक्ति जिसने अपने भाई की पादुकाएं सिंहासन पर रखीं, और जिसने वापस आने पर राज्य सौंप दिया, यह था भरत का समर्पण। हिन्दू धर्म के भगवद गीता, रामायण, महाभारत, और वेद जैसे शास्त्रों एवं ग्रंथों से ऐसे ही नैतिक मूल्यों, मानवता और जीवन के उच्चतम आदर्शों का संदेश मिलता है, इसलिये हिन्दू समाज की एकता जरूरी है। हिन्दू एकता भारत की आत्मा को जाग्रत करेगी। भारत का स्वाभिमान, आध्यात्मिकता और ऋषियों का ज्ञान वापस आयेगा। परिणामस्वरूप देश से भ्रष्टाचार, हिंसा और अनैतिकता दूर होने के रास्ते खुलेंगे। भारत पुनः जगद्गुरु के रूप में विश्व का मार्गदर्शक बनेगा। हमारे शत्रु भी हमसे मित्रता करने के लिए हाथ बढ़ायेंगे। इन सब स्थितियों को देखते हुए हिन्दू एकता एवं उसको संगठित करना जरूरी है, इसके लिये राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रयास एक रोशनी है, एक ताकत है।
संघ और हिंदुत्व को लेकर अक्सर उद्देश्यहीन, उच्छृंखल एवं विध्वंसात्मक आलोचनाएं होती रही हैं लेकिन इस तरह की नीति के द्वारा किसी का हित सधता हो, तो ऐसा प्रतीत नहीं होता तथा न ही उससे संघ पर कोई प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है। संघ की ऐसी आलोचना करने वाले समय, शक्ति और अर्थ का अपव्यय करते हैं तथा अपनी बुद्धि के दिवालियापन को उजागर करते हैं। संघ न केवल देश बल्कि दुनिया का बहुचर्चित एवं सबसे बड़ा गैर राजनीतिक संगठन है। जो बहुचर्चित होता है उसका विरोध भी होता है। निरूद्देश्य एवं स्तरहीन विरोध, विरोधी विचारधाराओं एवं संगठनों की स्वार्थपूर्ण मनोवृत्ति, ईर्ष्या एवं विध्वंस की नीति का स्वयंभू प्रमाण बन जाता है। संघ एवं मोहन भागवत की आलोचना करने वाले तथा उनके व्यक्तित्व पर कीचड़ उछालने वाले लोग एवं संगठन स्वयं को कमजोर अनुभव करते हुए भी समाज एवं राष्ट्र में प्रतिष्ठित होना चाहते हैं, वे ही ऐसी आलोचना करते हैं। उनकी आलोचनाएं एक जीवंत परंपरा को झुठलाने के असफल प्रयास ही रहे हैं।
हिन्दू एकता के अभाव में ही देश में जेहादी आतंकवाद, तीन करोड़ विदेशी बांग्लादेशियों की घुसपैठ, हिन्दुओं का धर्मान्तरण, गौहत्या, मठ-मंदिरों की सरकारी अधिग्रहण के माध्यम से लूट, हिन्दू संतों और देवताओं का अपमान, नारियों पर अत्याचार-बलात्कार, हिन्दुओं के साथ अंधाधुंध भेदभाव, अन्याय, अत्यन्त सहनशील हिन्दू समाज और महान् हिन्दू धर्म को नष्ट करने के षडयन्त्र बहुत तेजी से बढ़े। हिन्दू एकता से ये बुराइयां स्वयं नष्ट होने लगेंगी। इससे सबसे अधिक लाभ समाज की दौड़ में पिछड़े रह गए बन्धुओं को, गरीबों को और देश के बेरोजगार नवयुवकों को मिलेगा। हिन्दू विरोधी अपने को धर्मनिरपेक्ष घोषित करने वाले राजनेताओं ने भ्रष्टाचार के माध्यम से गरीब जनता के परिश्रम का लाखों करोड़ रुपया हड़पा है। अमेरिकी उद्योगपति जॉर्ज सोरोस जैसी ताकते भारत विरोधी विमर्श  गढ़ने के लिये अकूत पैसा झोंक रहे हैं, वही हमारे देश के कुछ राजनीतिक दल उसके हाथों खेल रहे हैं। सिकंदर से लेकर सोरोस तक हुए ऐतिहासिक आक्रमणों एवं साजिशों पर बोलते हुए भागवत ने कहा कि कुछ मुट्ठीभर बर्बर लोगों ने, जो गुणों में श्रेष्ठ नहीं थे, भारत पर शासन किया, तथा समाज में विश्वासघात का चक्र जारी रहा। उन्होंने इस बात पर भी जोर दिया कि भारत का निर्माण अंग्रेजों ने नहीं किया था तथा भारत के विखंडित होने की धारणा अंग्रेजों ने लोगों के मन में डाली थी। लेकिन अब न केवल भारत बल्कि भारत का बहुसंख्य हिन्दू समाज इन साजिशों को नाकाम करने में सक्षम है।
भारत एक ‘हिंदू राष्ट्र’ है और हिंदुत्व देश की पहचान का सार है। संघ स्पष्ट रूप से देश की पहचान को हिंदू मानता है क्योंकि राष्ट्र की सभी सामाजिक-सांस्कृतिक प्रथाएं इसी के सिद्धांतों से चलती हैं। भागवत के अनुसार ‘हिन्दुत्व’ ऐसा शब्द है, जिसके अर्थ को धर्म से जोड़कर संकुचित किया है। संघ की भाषा में उस संकुचित अर्थ में उसका प्रयोग नहीं होता। यह शब्द अपने देश की पहचान, अध्यात्म आधारित उसकी परंपरा के सनातन सत्य तथा समस्त मूल्य सम्पदा के साथ अभिव्यक्ति देने वाला शब्द है। संघ मानता है कि ‘हिंदुत्व’ शब्द भारतवर्ष को अपना मानने वाले, उसकी संस्कृति के वैश्विक व सार्वकालिक मूल्यों को आचरण में उतारना चाहने वाले तथा यशस्वी रूप में ऐसा करके दिखाने वाली उसकी पूर्वज परम्परा का गौरव मन में रखने वाले सभी 150 करोड़ लोगों पर लागू होता है। मोहन भागवत ने फिर हिन्दू एकता का आह्वान किया है। आओ, फिर एक बार जागें, संकीर्णता एवं स्वार्थ की दीवारों को ध्वस्त करें। प्रेषकः

            (ललित गर्ग)
लेखक, पत्रकार, स्तंभकार
ई-253, सरस्वती कंुज अपार्टमेंट
25 आई. पी. एक्सटेंशन, पटपड़गंज, दिल्ली-92
मो. 9811051133

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