आंतरिक सत्संग ही कल्याण करता है!

शिव शर्मा

सत्संग यानि सत्य का साथ, अनश्वर के साथ, ईश्वर के साथ लग जाना। साथ का मतलब है उसी भाव में, अवस्था में, मानसिकता में उतर जाना। जो मनुष्य तुम्हें सत्य के साथ कर दे वे संत। जो जगह तुम्हें सत्य के निकट पहुंचा दे वह सत्संग-स्थल। जो किताबें तुम्हें सत्य की अनुभूति के लिए प्रेरित करें वह वेद, वह उपनिषद, वह पुराण। किंतु यह सब बाहरी सत्संग है। इससे कल्याण नहीं होता है। सत् की बात जब तक अंदर नहीं उतरे तब तक ‘संग’ नहीं होता। तुम सत्संग से लौटे और घर पर पत्नी से झगड़ लिए, तुमने सत्संग वाली किताबें पढ़ी और दुकान पर जाते ही नौकर को लताड़ दिया। तुम कथा सुनकर नौकरी करने गए और वहां रिश्वत ले ली। सब गुड़-गोबर हो गया। तुमने बस संत को सुना, ग्रहण नहीं किया। तुमने वेद का कोई हिस्सा पढ़ा, उसे स्वीकार नहीं किया। बाहर वाला सत्संग बाहर ही रह गया, अंदर गया ही नहीं। तुम सत् के साथ हुए ही नहीं।

हमने कबीर की साखियां पढ़ी, पढ़ाई और उनके अर्थ भी लिखे लेकिन वो अंदर नहीं उतरीं। कबीर की रूह से भाव उठकर साखी बने; कबीर रूह में डूब कर बोले। इधर हमने कान से सुनी, आंखों से पढ़ी, दिमाग से समझी और मुंह से बोलकर पढ़ाई। इनमें कहीं भी कबीर नहीं थे। केवल पाठ्यक्रम था और पढ़ाने की नौकरी थी। कबीर और उनकी साखी जहां थी वहां तो हम पहुंचे ही नहीं। इसलिए दस हजार विद्यार्थियों को पढ़ाने के उपरांत भी कबीर के साथ हमारा ‘सत्संग’ नहीं हुआ। आप सबकी भी यही दशा है।
सत्संग में संत रूह से बोलता है और हम कान से सुनते हैं, यह सत्संग नहीं है। यही कारण है कि दस-बीस साल तक सत्संग में बैठकर भी हम वैसे के वैसे भौतिक ही हैं; तनिक भी रूहानी नहीं हुए। हम सत् से दूर ही रहे। बस हमारे पास किस्से हैं, कहानियाँ हैं, गुट हैं, प्रसादी है, जुलूस है; किंतु सत्संग नहीं है।
अंदर तुम्हारे मोह-माया, लोभ-बेईमानी, छल-कपट है। वहां सत्संग है ही नहीं। तुम माया से छूटना ही नहीं चाहते हो, इसलिए सत्संग को बाहरी ही रहने देते हो। जहां पढ़ा वहीं झाड़ कर चले जाते हो, इसलिए जरूरी है आंतरिक सत्संग। तुम्हारी सोच ही तुम्हें सत्य की तरफ धकेलने लगे तब बात बनेगी। तुम्हारे भीतर ही सत्यानुभूति के लिए कसक जगे तब परिवर्तन होगा। तुम पहले निश्चय करो कि पॉज़िटिव (सकारात्मक) बनना है। तुम पहले अपने आप से ज़िद करो कि आत्मस्वरूप तक पहुंचना है। तुम खुद को सत्संग के लिए तैयार करो; देखा-देखी कहीं मत जाओ। तुम यह मत सोचो कि बाबा जी का सत्संग सुनने से धन मिलेगा, संतान मिलेगी, नौकरी का जुगाड़ हो जाएगा। तुम केवल सत्य को जानने का संकल्प रखो। तुम खुद साकार सत्संग होने का संकल्प करो। तुम अपने कर्तव्य का दायरा अधिकतम सीमा तक फैला दो। यह कर्म वाला सत्संग हो जाएगा। तुम अपने ‘मैं’ को पूरे समाज से जोड़ दो; यह सामाजिक सत्संग हो जाएगा। तुम अपने ‘खुद’ को ईश्वर में लीन कर दो; यह परम सत्संग होगा। तभी कल्याण होगा, तभी सत् के आनंद की अनुभूति होगी।
गौतम बुद्ध ने एक भिक्षुक को उस नगर की सुंदरतम वैश्या के घर पर तीन माह तक साधना करने के लिए भेज दिया। उसे वहां विपश्यना करनी थी; अपने आप में स्थित रहना था। आंतरिक सत्संग में ठहरना था। वह भिक्षुक उस वैश्या के घर रहने लगा। वैश्या का मन उस युवा साधु के तेज पर डोल गया। वह उसके सामने बनती संवरती। वह उस भिक्षुक को उद्दीप्त करने वाली चेष्टाऐं करने लगी।  पूरे तीन माह तक वह ‘रति’ बनी रही किंतु साधु निष्काम ही रहा। विदा के दिन वेश्या ने सवाल किया – मैं साक्षात ‘विचलन’ थी और तुम प्रत्यक्ष ‘अविचलन’; ऐसा कैसे संभव हुआ। साधु बोला – मैं बुद्ध के आदेश से अपने ही अंदर स्थित था। तुम वासना से उद्वेलित मेरे बाहर ही बाहर सक्रिय थी। तुम मेरे भीतर नहीं उतर सकी क्योंकि अंदर मैं सत्य के साथ था, निष्काम था; तुम बाहर अज्ञान के साथ थी। उस स्त्री ने साधु को प्रणाम किया और अपना कोठा छोड़कर बुद्ध की शरण में चली गई। सत्संग (उस साधु के साथ) उसके भीतर उतर गया था।
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