सुप्रीम कोर्ट ने अभिव्यक्ति की आजादी से जुड़े दो अलग-अलग मामलों की सुनवाई के दौरान जो कहा, वह जहां संवैधानिक और लोकतांत्रिक मूल्यों के लिहाज से खासा अहम है वही एक संतुलित एवं आदर्श समाज व्यवस्था का आधार भी है। सुप्रीम कोर्ट ने अभिव्यक्ति की आजादी व धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने से जुड़े इन मामलों में जो फैसले किए हैं और इस दौरान जो टिप्पणियां की हैं, उसके निहितार्थों को समझने की आवश्यकता है। मंगलवार को ‘मियां-टियां’ और ‘पाकिस्तानी’ शब्दों के इस्तेमाल से जुड़ी याचिका की सुनवाई करते हुए न्यायमूर्ति बीवी नागरत्ना और न्यायमूर्ति सतीश चंद्र शर्मा की पीठ ने इस मुकदमे के आरोपी को इस आधार पर आरोप-मुक्त कर दिया कि यह भारतीय दंड सहिता की धारा 298 के तहत धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने के अपराध के बराबर नहीं है। वैसे, अदालत ने इन शब्दों के प्रयोग को गैर-मुनासिब माना। एक दूसरे रणवीर इलाहाबादिया से जुड़े मामले में अश्लीलता के आरोपों पर भी सुप्रीम कोर्ट ने बेहद संतुलित लेकिन धारदार-सख्त टिप्पणी करते हुए स्पष्ट किया कि न तो अश्लीलता के लिए कोई गुंजाइश छोड़ी जानी चाहिए और न ही इसे अभिव्यक्ति की आजादी की राह में आने देना चाहिए। रणवीर इलाहाबादिया को पॉडकास्ट जारी रखने की इजाजत देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि वह नैतिकता और अश्लीलता की सीमा को लांघने की गलती न करें। सुप्रीम कोर्ट ने अभिव्यक्ति की आजादी से जुड़ी इन जटिल होती स्थितियों को गंभीरता से लिया और अनेक धुंधलकों को साफ किया है। सर्वोच्च न्यायालय के इन अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के जुड़े फैसलों रूपी उजालों का स्वागत होना ही चाहिए।
यह विडम्बनापूर्ण एवं हमारी न्याय प्रक्रिया की विसंगति ही है कि एक सरकारी कर्मचारी के खिलाफ इस्तेमाल इन ‘मियां-टियां’ और ‘पाकिस्तानी’ जैसे शब्दों से जुड़े मुकदमे को निचली अदालत से सर्वोच्च न्यायालय तक का सफर तय करने में लगभग चार साल लगे, मगर दोनों पक्षों ने किसी पड़ाव पर यह समझदारी दिखाने की कोशिश नहीं की कि यह सिर्फ अहं की लड़ाई है। कांग्रेस सांसद इमरान प्रतापगढ़ी की एक कविता पर गुजरात पुलिस ने एफआईआर दर्ज की थी। गुजरात हाईकोर्ट ने भी इस मामले में जांच की जरूरत बताते हुए पुलिस कार्रवाई की पुष्टि की थी। इसे देखते हुए सुप्रीम कोर्ट की यह टिप्पणी मायने रखती है कि एफआईआर दर्ज करने से पहले संबंधित अधिकारियों एवं पुलिस को कविता पढ़नी चाहिए थी। कविता नफरत और हिंसा की नहीं, इंसाफ और इश्क की बात करती है। शीर्ष अदालत ने कहा कि आजादी के 75 साल हो गए हैं। कम से कम अब तो पुलिस को स्वतंत्र अभिव्यक्ति का मर्म समझना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट की इस बात का संदेश बिल्कुल स्पष्ट एवं न्यायसंगत है। हालांकि यह छिपी बात नहीं है कि पुलिस स्वायत्त तरीके से काम नहीं करती। अनेक कार्रवाइयां उसे सत्ता पक्ष के दबाव में करनी पड़ती हैं। इसलिए विपक्षी दलों एवं समुदाय विशेष के मामले में अगर अभिव्यक्ति की आजादी के कानून को हाशिये पर धकेल दिया या नजरअंदाज कर दिया जाता है, तो हैरानी की बात नहीं। यह कम बड़ी विडंबना नहीं कि साहित्य और कलाओं में अभिव्यक्त विचारों की व्याख्या भी अदालतों को करनी पड़ रही है। सत्ताएं सदा से अपनी आलोचना से तल्ख हो जाती रही है, ऐसी जटिल स्थितियों में आखिर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा कौन करेगा?
ऐसा पहली बार नहीं हुआ है, इससे पहले भी कई मौकों पर वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर लम्बी बहसें हो चुकी हैं, आन्दोलन तक हुए, हिंसा एवं अराजकता का माहौल बना। हर बार अदालतें पुलिस को नसीहत देती हैं, अपने दखल से समझ एवं सीख भी देती है ताकि संतुलित वातावरण बना रहे। मगर शायद उस पर संजीदगी एवं संवेदनशीलता से अमल की जरूरत न तो पुलिस ने समझी और न उग्र एवं विध्वंसक शक्तियों ने। इसी का नतीजा है कि अब भी जब तब ऐसे मामले अदालतों में पहुंच जाते हैं, जिनसे किसी की भावना के आहत होने एवं विभिन्न समुदायों के आपसी सौहार्द-सद्भावना के खण्डित होने के आरोप लगते रहते हैं, जबकि वास्तव में उनमें ऐसा कुछ नहीं होता। बेवजह नफरत, द्वेष एवं घृणा का माहौल बनता रहा है, चाहे वह फिल्मों के दृश्यों-संवादों, किसी राजनेता के बयानों, धर्मगुरुओं के बोलों या साहित्य के किसी अंश को लेकर भावनाएं आहत करने या भड़काने के आरोप किसी ऐतिहासिक-मिथकीय प्रसंग को लेकर की गई टिप्पणी पर लगते रहे हों।
आज सोशल मीडिया जैसे मंचों के बेजा इस्तेमाल की प्रवृति बढ़ रही है, फेसबुक, ट्विटर, यू-ट्यूब जैसे सोशल मंचों पर ऐसी सामग्री परोसी जा रही है, जो अशिष्ट, अभद्र, हिंसक, भ्रामक, राष्ट्र-विरोधी एवं समुदाय विशेष के लोगों को आहत करने वाली होती है, जिसका उद्देश्य राष्ट्र को जोड़ना नहीं, तोड़ना है। इन सोशल मंचों पर ऐसे लोग सक्रिय हैं, जो तोड़-फोड़ की नीति में विश्वास करते हैं, वे चरित्र-हनन और गाली-गलौच जैसी औछी हरकतें करने के लिये उद्यत रहते हैं तथा उच्छृंखल एवं विध्वंसात्मक नीति अपनाते हुए अराजक माहौल बनाते हैं। एक प्रगतिशील, सभ्य एवं शालीन समाज में इस तरह की हिंसा, अश्लीलता, नफरत और भ्रामक सूचनाओं की कोई जगह नहीं होनी चाहिए, लेकिन विडम्बना है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता कानून के चलते सरकार इन अराजक स्थितियों पर काबू नहीं कर पा रही है। सुप्रीम कोर्ट ने सोशल मीडिया से जुड़े मंचों के दुरुपयोग पर चिंता से सहमति जताते हुए भी सेंसरशिप और नॉर्म (मानदंड) के बीच के फर्क को रेखांकित किया। उसका कहना था कि सरकार को इस संबंध में गाइडलाइंस लानी चाहिए, लेकिन ऐसा करते हुए यह भी ध्यान में रखना जरूरी है कि वे अभिव्यक्ति की आजादी पर गैरजरूरी पाबंदियों का रूप न ले लें।
सुप्रीम कोर्ट के इस सख्त रुख की अहमियत इसलिए भी बढ़ जाती है क्योंकि यह ऐसे समय सामने आया है जब देश में अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर विभिन्न समुदायों का विचलन, द्वेष एवं नफरत काफी बढ़ी हुई दिख रही है। शासन प्रशासन की ओर से इन्हें रोकने की कोशिशों में भी अक्सर अति-उत्साह की झलक देखने को मिलती है। हालांकि सोशल मीडिया के ये मंच स्वस्थ लोकतंत्र के लिए एक सकारात्मक भूमिका भी निभाते देखे जाते रहे हैं। उन पर कड़ाई से बहुत सारे ऐसे लोगों के अधिकार भी बाधित होने का खतरा है, जो स्वस्थ तरीके से अपने विचार रखते और कई विचारणीय मुद्दों की तरफ ध्यान दिलाते हैं। मगर जिस तरह बड़ी संख्या में वहां उपद्रवी, हिंसक, राष्ट्रीय और सामाजिक समरसता को छिन्न-भिन्न करने वाले तत्त्व सक्रिय हो गए हैं, उससे चिंता होना स्वाभाविक है। इससे जहां नागरिकों के अभिव्यक्ति के अधिकार का उल्लंघन होता है, वहीं इसके गलत इस्तेमाल की बेजा स्थितियां भी देखने को मिलती है। शीर्ष अदालत ने याद दिलाया है कि इस अधिकार का ख्याल रखा जाए। उन पर अंकुश लगाने एवं उनके खिलाफ सख्त कार्रवाई का प्रावधान करना जरूरी है।
भारत की संप्रभुता और अखंडता, देश की सुरक्षा, विदेशी देशों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध, सार्वजनिक व्यवस्था, शालीनता या नैतिकता, न्यायालय की अवमानना, मानहानि या किसी अपराध के लिए उकसाने के विरुद्ध वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नहीं दी जा सकती है। सरकार इनकी रक्षा के लिए भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर उचित प्रतिबंध लगा सकती है। सुप्रीम कोर्ट ने अभिव्यक्ति की आजादी के अधिकार के साथ-साथ सेंसरशिप के प्रति अपनी अनिच्छा को दोहराया। लेकिन यह भी कहा कि ऐसा विचार ‘घटिया विचारों’ और ‘गंदी बातों’ का लाइसेंस नहीं है। दरअसल, इन दिनों सोशल मीडिया में जिस पैमाने पर विष-वमन हो रहा है, उसने पुलिस की चुनौतियां बढ़ा दी हैं। मगर उसकी कार्रवाइयां इसलिए प्रभावी नहीं होतीं, क्योंकि राज्य-दर-राज्य उनके पीछे के राजनीतिक पक्षपात भी स्पष्ट हो जाते हैं। राज्य पुलिस अक्सर सरकार विरोधी पोस्ट के मामले में तो तत्परता दिखाती है, मगर सत्तारूढ़ दल से जुड़े लोगों की वैसी ही गतिविधियां वह नजरअंदाज कर देती है। ऐसे में सुप्रीम कोर्ट ने उचित ही गुजरात पुलिस को एहसास कराया है कि उसे असामाजिक तत्वों से निपटते हुए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के बुनियादी लोकतांत्रिक मूल्य की रक्षा भी करनी है। जाहिर है, उच्छृंखल हुए बिना आजादी के उपयोग में ही नागरिक का भी भला है और समाज का भी।
(ललित गर्ग)
लेखक, पत्रकार, स्तंभकार
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