
अर्थ _ स्त्री के चरित्र और पुरुष के भाग्य में होती रहने वाली उथल पुथल को मनुष्य तो क्या देवता भी नहीं समझ पाते हैं।
स्त्री के विषय में महर्षि वेदव्यास ने एक सार्थक बात कही है – स्त्री को मनुष्य तो क्या, देवता भी नहीं समझ सके हैं। उसके चरित्र में जितना फैलाव, गहराई और ऊंचाई है; वह कल्पना से परे है। महाभारत कालीन अनेक स्त्रियों के दृष्टांत उनके सामने साक्षात थे – मौन त्याग, सत्य और प्रखरता (गांधारी), गोपनीयता, धैर्य, त्याग (कुंती), शुचिता, तेजस्विता (द्रौपदी), निष्काम प्रेम (राधा, वृषाली), अचला (उत्तरा), निस्पृह (चित्रांगदा, उलूपी) और अनन्य भक्ति (पारसंवी – विदुर की पत्नी)। महर्षि ने इन विलक्षण स्त्री चरित्रों का मूल्यांकन करते हुए ही उक्त श्लोक लिखा था।
पुरुष समाज में इस उक्ति को स्त्रियों के विरुद्ध नकारात्मक टिप्पणी की तरह इस्तेमाल किया जाता रहा है। यह गलत है। व्यास जी ने एक ही श्लोक के अर्द्ध भाग (स्त्री चरित्रं….देवो न जानेति, कुतो मनुष्यः) में ‘स्त्री चरित मानस’ लिख दिया। जैसे राम चरितमानस, वैसे ही नारी चरितमानस।
कुछ दृष्टांत देखें –
गांधारी – पति अंधा था तो खुद ने भी आंखों पर पट्टी बांध ली। सायास (प्रयत्न पूर्वक या खुद ही) अंधी हो गई। दुर्योधन का पापाचार सहन करती रही किंतु युद्ध के समय उसे ‘विजयी भवः’ नहीं कहा; अपने ही पुत्र को विजेता होने का आशीर्वाद नहीं दिया! …जब श्रीकृष्ण सामने आए तो सौ मृत पुत्रों की मां के क्रंदन ने उन्हें शाप दे दिया! कैसी स्त्री थी गांधारी, जिसका शाप भगवान को भी लग गया! …फिर शाप दे कर स्वयं ही रो दी कि मैंने यह क्या कर दिया! विलक्षण चरित्र।
कुंती – कर्ण के जन्म का रहस्य छिपाए रही। उसे अपने ही सामने प्रतिदिन प्रताड़ित होते हुए देखती रही। जब पाण्डवों पर युद्ध में कर्ण के हाथें सम्भावित मृत्यु का संकट आया तो उसी परित्यक्त पुत्र के पास याचना के लिए चली गई। पाण्डवों के लिए अभय दान मांग लिया। युद्ध के बाद राज भोग का अवसर आया तो कर्ण ही अंदर की कसक बन गया। महल के सुख चुभने लगे। कुंती अपने पुत्रों द्वारा उपेक्षित गांधारी और धृतराष्ट्र के साथ वन में चली गई। अद्भुत!
द्रौपदी – पांच पति में विभाजित द्रौपदी की शुचिता कैसी रही होगी कि आज पंच कन्याओं में याद की जाती है। उसने दुर्योधन को ‘अंधे का पुत्र अंधा’ कहा। चीर हरण के समय एक यक्ष (अति महत्वपूर्ण) प्रश्न उठाया कि पति या पुरुष को यह अधिकार किसने दिया कि वह जुए में स्त्री को ही दांव पर लगा दे! अपने पांच पुत्रों के हत्यारे अश्वत्थामा को उसने माफ कर दिया। कर्ण की मृत्यु पर माथे की बिंदी पौंछने के लिए हाथ उठा लेने वाली याज्ञसेनी के अंतस्थ रोदन ने कृष्ण की भी आंखें नम कर दीं। कृष्ण ने उसे रोक दिया। अनाहत प्रेम का वह अनहद नाद कृष्ण ने सुन लिया….अनुपम द्रौपदी!
वृषाली – निष्काम प्रेम की प्रतीक दूसरी राधा! कर्ण की प्रेयसी थी। कर्ण का विवाह प्रतिकूल परिस्थिति वश अन्य युवती से हो गया। चालीस वर्ष तक वृषाली अपने हृदय में उस प्रेम का अनादि नाद सुनती रही। फिर कर्ण के अवसान पर सती हो गई, अज्ञात स्थान पर भस्म हो गई। वृषाली अनन्या थी!
वेदव्यास के कथन का तात्पर्य ऐसी स्त्रियों को नमन करना था। ….इधर आधुनिक युग में विश्व विख्यात मनोवैज्ञानिक सिगमंड फ्रायड ने लिखा कि – मैं स्त्री के मन को नहीं समझ सका। जीवन भर मानव मन का ही अध्ययन करता रहा हूं; लेकिन नारी के मन की गहराई एवं ऊंचाई को नहीं जान सका। आगे कहा कि जो कुछ समझा हूं वह ऐसा है – स्त्री अपने हृदय में स्थिर रहती है, देह में नहीं। उसे स्वीकार करोगे तो घर में रोज ही प्रेमोत्सव रहेगा। उसकी उपेक्षा, तिरस्कार, प्रताड़ना आदि पूरे समाज के लिए अभिशाप बन जाती है। उपेक्षिता नारी आजीवन साथ रह कर भी पति से असंलग्न रह जाती है। उसमें उत्कर्ष है, उत्सव है, उन्नयन है और जीवन का रसायन है। वह पुरुष के व्यक्तित्व की कसौटी है।
हमारे ऋषि कहते हैं – मातृ (स्त्री) देवो भवः
ऐसी स्त्रियों को प्रणाम।
अप्रतिम…….अद्भुत! उपरोक्त उक्ति की ऐसी व्याख्या कभी नहीं पढ़ी। इसके लिए आपको बहुत-बहुत प्रणाम……साधुवाद!