
कबीरदास जी का एक दोहा है :
गुरु गोविंद दोउ खड़े, काके लागूं पाय।
बलिहारी गुरु आपकी, गोविंद दियो बताय।।
यदि कभी ऐसा हो जाए कि गुरु और भगवान, दोनों एक साथ मिल जाएं तो पहले गुरु को प्रणाम करो। कारण यह कि गुरु ने ही बताया कि ये ईश्वर हैं।
अब पहला सवाल – गुरु ने ऐसा कहां बताया! मंदिर में? आश्रम में? किसी पवित्र स्थान पर? ….नहीं! इनमें से कहीं भी नहीं।
दूसरा सवाल – कब बताया? बचपन में, जवानी में, बुढ़ापे में।
तीसरा प्रश्न – कैसे बताया? बोल कर? इशारे से? लिख कर? …नहीं, ऐसा भी कुछ नहीं।
चौथा सवाल – किसको बताया? मुरीद के शरीर को? बुद्धि को? मन को? ….नहीं, ऐसा कुछ नहीं। तो फिर होता क्या है?
यह दोहा जितना सरल है, अर्थ उतना ही कठिन है। यह सारी बात आंतरिक है। गुरुत्व तथा जीवात्मा के हृदय से संबंधित है। न गुरु का स्थूल शरीर; और न ही शिष्य की भौतिक देह। शिष्य की ‘साधनारत जीवात्मा’ और गुरु के अंदर का ‘गुरु तत्व’ अथवा ‘नूरानी गुरु’। दर्शन स्थल; मुरीद का हृदय – मानस – अति चेतन मन। शुरू में गुरु अपनी शक्ति से शिष्य की ज्ञानेंद्रियों सहित मन, बुद्धि, अहंकार को बाहर से अंदर की तरफ समेटता है, फिर उसे साधना में बैठाता है। दीक्षा मंत्र के प्रभाव से साधना परिपक्व होती है। मन-बुद्धि-अहंकार, आज्ञा चक्र पर एक हो जाते हैं। यहीं गुरु की नूरानी छवि या ज्योति रूप के दर्शन होते हैं।
यही ज्योति रूप फिर शिष्य के हृदय को आगे बढ़ाता है। साधना के कठिन आयाम पार कराता है। अंत में परम ज्योति के समक्ष खड़ा कर देता है। तब परावाणी से बोध कराता है कि यही परमात्मा है – तुम्हारी ही आत्मा का परम रूप। आत्मा के ज्योति अणु का अनंत रूप; सर्वव्यापी दिव्य प्रकाश। ….यह स्थान हमारा हृदय ही है। ज्योति रूप गुरु और परम प्रकाश रूप परमात्मा यहीं सामने दिखते हैं। उस अवस्था में शिष्य का धर्म है कि पहले गुरु को प्रणाम करे; और तब परम ज्योति में स्वयं को एकरूप होने दे। उक्त दोहे में यही सत्य यहां बताया गया है!
आज्ञा चक्र पर एक त्रिकोण होता है तथा उसके बीच में एक प्रकाश बिंदु होता है। साधना के प्रभाव से यह बिंदु आकाश जितना फैल जाता है। उसी चमकदार आकाश में ईश्वरीय ज्योति के दर्शन होते हैं।
यदि आप सगुण भक्त हैं तो इसी ज्योति में आपको अपने इष्ट के साकार दर्शन हो जाते हैं। इसी त्रिकोण को हृदय कहते हैं।
गुरुदेव हरप्रसाद जी मिश्रा ‘उवैसी’ कलंदर का आशीर्वाद हम सब पर बना रहे।