
इस सवाल का जवाब चाहिए तो खुद को देखते रहो। खाते-पीते, उठते-बैठते, सोते-जागते, लड़ते-झगड़ते और अन्य सब कुछ करते हुए। तुम में जो देहधारी ‘मैं’ है, उसे यह सब करते रहने दो और तुम में ही जो ‘आत्म’ (जीव आत्मा) वाला ‘अहम’ है उसे यह सब देखने दो। यह दूसरा वाला मैं हमारी बुद्ध शक्ति है। यही हमारे शरीर वाले मैं का दृष्टा है। तो तुम अपने ही दृष्टा, खुद के ही साक्षी होने का प्रयास करो। इसके लिए अभ्यास करना है। आरम्भ में दो दिन दिक्कत होगी लेकिन दो दिन बाद मज़ा आने लगेगा। तुम खुद ही खुद को देख रहे हो; इससे ज्यादा विस्मयकारी आनंद और क्या होगा।
पलटू अंधियारी मिटी, बाती दीन्ही बार।
दीपक बारा नाम का, महल भया उजियार॥ गोरख,भरथरी,सेद्धार्थ ने इसके लिए घर छोङ़ा। कृष्ण,श्याचरण लाहिङ़ी,कबीर आदि ने ङर में रहते हुए ही यह जान लिया। खुद की तरफ से सचेत हो तो ज्ञान घर में ही है और स्वयं से अचेत हो तो जंगल में भी अज्ञान ही है।
पलटू विख्यात संत कवि हुए हैं। वे कहते हैं कि दीपक जलाने से जिस तरह बाहर का अंधेरा मिट जाता है, उसी प्रकार प्रभु नाम के सुमिरन से मन का अज्ञान दूर हो जाता है। अहंकार मिट जाता है। महल का मतलब यहां मन है, हृदय है, अंत:करण है।
लगती तो सीधी सी बात है लेकिन बहुत गहरी है। आप दस बरस से राम-राम का जाप कर रहे हैं, किंतु अंदर का अज्ञान अभी तक नहीं मिटा। तुम अभी भी जाति के आधार पर सोचते हो। तुम अभी भी आर्थिक हैसियत के अनुसार दूसरों से व्यवहार करते हो। तुम अभी भी अनैतिक एवं अवैधानिक ढंग से धन कमाते हो। तुम अभी भी दूसरों को धोखा देते हो। तुम तो दस साल तक भगवान के नाम का सुमिरन करने के उपरांत भी जड़ हो; चेतन हुए ही नहीं, थोड़ा सा भी नहीं चेते, अज्ञान को मिटाने के प्रति जागरूक नहीं हुए।
तुम चाहते हो कि बटन दबाते ही घर में बिजली का उजाला हो जाना चाहिए। तुम चाहते हो कि गुरु-नाम लेते ही हृदय का अज्ञान मिट जाए। तुम्हारा खान-पान, रहन-सहन, उद्योग-धंधे, सोच-विचार आदि तो अज्ञानियों जैसा ही चलता रहे, किंतु अंदर ज्ञान का दीपक जल जाए। ऐसा तो नहीं होगा। कभी नहीं होगा। चाहे कैसे भी गुरु के पास चले जाओ। जैसे स्वस्थ रहने के लिए दवा के साथ पथ्य आवश्यक है, उसी भांति नाम सुमिरन के साथ सदाचरण जरूरी है, संकल्प अनिवार्य है, सात्विक आहार-विहार जरूरी है।
संकल्प ही दीया है, श्रद्धा ही घी या तेल है, नाम ही बाती है। गुरु की कृपा ही उस बाती को ‘बारती’ है; रोशन कर देती है। गुरु तो खुद जलता हुआ (रोशन) निहित रहता है। इसके लिए तुम गुरु के पास जाओ, श्रद्धापूर्वक बैठो, स्वयं को धो-पोंछ कर जाओ। सचेत रह कर जाओ, आत्मानुभूति के लिए जागरूक रह कर जाओ। उसके पास बैठते ही वह तुम्हारा मंतव्य जान लेगा, जैसा तुम्हारा भाव है वैसे ही कृपा करेगा। कृपा करना उसका स्वभाव है। जो शिष्य आत्मज्ञान के लिए गुरु के पास जाता है, गुरु उसका दीपक ‘बार’ देता है।
गुरु जो शब्द (नाम) देता है उस शब्द में अर्थ रहता है। वह अर्थ ही ‘उजियारा’ है। उस अर्थ में प्रवेश करते ही रोशनी फूटती है। उस आलोक में तुम्हारा सत्य दिख जाएगा। तुम्हारी आत्मा दिख जाएगी। आत्मा में परमात्मा दिख जाएगा। तुम्हारा ‘मैं’ महल रोशन हो जाएगा। तो गुरु शब्द देता है, सुमिरन से शब्द में निहित परम अर्थ खुलता है। इसी को मंत्र की सिद्धि कहते हैं। पलटू साहब ने इसी को ‘दीपक बारा नाम का’ कहा है। जब तक शब्द का अर्थ नहीं खुला, तब तक दीपक नहीं जला। तब तक अंधियारा ही है। यही कारण है कि साधना काल के दौरान अनेक मुरीद भटकते रहते हैं। जब तक बत्ती जलेगी नहीं, अंधेरा दूर नहीं होगा। तुम्हारे पास दीया है, उसमें तेल है, बाती भी है लेकिन जलाने के लिए माचिस नहीं है। कोई दूसरा रोशन दीया भी नहीं है। ऐसे में अंधेरा ही रहेगा। नाम का अर्थ जब तक नहीं खुलेगा तब तक अज्ञान कायम रहेगा। तब तक मनुष्य भटकता रहेगा। तो गुरु तुम्हारे दीये को जलाएगा; उसकी ही कृपा से नाम का अर्थ खुलेगा।
गुरु ने अपने ज्ञान रूपी दीपक की ‘लौ’ से शिष्य का शब्द रूपी दीया ‘जला’ दिया। फिर उसी प्रकाश के सहारे वह मुरीद उस उजाले में पहुंच गया जहां अनहत् नाद है; जहां शून्य है। जहां वस्तु नहीं है, इच्छा नहीं है, शरीर नहीं है और शरीरधारी संबंध भी नहीं है। अब आलोकित हृदय है, अब मनुष्य का निष्काम अस्तित्व है, अब जाति, धर्म, नाम, उपाधि नहीं है। अब देहधारी ज्ञान है, देहधारी परमात्मा है, देहधारी विराट है। गुरु देह नहीं – ज्ञान, भक्ति और योग का साकार रूप है। साकार यानि देहधारी रूप। ‘महल भया उजियारा’ का यही अर्थ है।
रोटी, कपड़ा, मकान देने वाली सिद्धियां अलग होती हैं। वहां ज्ञान का दीपक नहीं है; चमत्कार है। प्रभु के दर्शन में गुरु तुम्हें बाहरी वस्तु नहीं देता है; जो आत्मा तुम्हारे अंदर पहले ही है, उसे दिखा देता है। ऐसा ‘उजाला’ कर देता है कि उसमें तुम्हें अंतस्थ आत्मा के ‘दर्शन’ हो जाएँ।