अपने कर्म से ईश्वर की पूजा

शिव शर्मा

गीता में नौवें अध्याय के श्लोक 26, 27, 28 में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को यही कहा है कि तू कर्म पूजा कर। कैसे; – अपना भोजन, पानी, आजीविका, व्रत, दान, साधना आदि सब मुझे अर्पित करता रह। मैं सगुण ब्रह्म या साकार ईश्वर के रूप में उक्त सब ग्रहण करता हूं। ऐसा मान कि संसार का सारा वस्तु-वैभव मेरा ही है, सब में मैं ही हूं। यह सब मेरे लिए ही है। इसलिए इन सबको भोग करने से पहले मुझे अर्पित कर। ….भगवान को हमारे रोटी, कपड़ा, मकान की जरूरत नहीं है। वे ऐसा इसलिए चाहते हैं कि हमारा अहंकार (यह मेरा है) दूर हो जाएय सांसारिक आसक्ति मिट जाए; मोह नष्ट हो जाए।

‘तू जो कुछ करता है वह मुझे अर्पित कर – यह है कर्म के द्वारा ईश्वर की पूजा। स्वयं के कर्म प्रभु को अर्पित करो। केवल फूल माला से काम नहीं चलेगा। कल्याण तो भगवत भाव के अनुसार किये गये कर्मों से होगा। सन्यासी, ज्ञानी और भक्त के लिए भी कर्म करना जरूरी है। सारे कर्मों का पर्यवसान ज्ञान में है। ज्ञान की अंतिम परीणिति आत्मानुभूति में है। यही कारण है कि गीता कर्मयोग का ग्रंथ है। श्रीकृष्ण कर्मयोग के साकार रूप हैं। इस विधि से किये गये कर्म पुनर्जन्म को रोकते हैं !
कर्म से बंधन होता है। कर्म से ही बंधन कटता है। इस तरह कर्म के दो वर्ग हो गए- बांधने वाले और बंधन से मुक्त करने वाले। हमारा एक ही कर्म इन दो वर्ग में विभक्त हो जाता है – कर्तापन के अभिमान से कमाई गई आजीविका बंधनकारी है और अकर्ता व अभोक्ता भाव से अर्जित आजीविका अबंधन कारी है।
इसका मतलब तो यह हुआ कि कर्म दो तरह के नहीं; उनकी अवस्थाएं दो प्रकार की होती हैं। कोई आतंकवादी किसी मनुष्य की हत्या कर दे तो यह अपराध है, पाप है। उधर उसी आतंकी को कोई मार दे तो यह देशभक्ति मानी जाएगी; उसे पाप नहीं कहा जाएगा। महाभारत का युद्ध पाण्डवों के लिए धर्मयुद्ध था और कौरवों के लिए कथित रूप से अन्याय पूर्वक सत्ता प्राप्ति हेतु की गई लड़ाई थी। इसीलिए श्रीकृष्ण ने कहा कि स्वधर्म के लिए कर्म करो; निष्काम भाव से कर्तव्य कर्म करो; कर्ता वाले अभिमान एवं भोक्ता वाली आसक्ति को त्याग कर कर्म करो।
गीता में चौथे अध्याय के 41वें श्लोक में भगवान ने स्पष्ट किया है कि कौनसे कर्म बंधनकारी नहीं होते हैं। उनके अनुसार – मानसिक स्तर पर स्थिर रहो। सब कुछ ईश्वर को अर्पित करते हुए स्वयं को केवल निमित्त समझो। प्रभु कृपा में संशय मत करो और अपने कर्म के प्रति भी आश्वस्त रहो। परम भाव में ही सक्रिय रहो। ये चार आंतरिक अवस्थाएं हैं। इन्हें एकरूप रखते हुए जो कर्म किये जाते हैं उनसे पुनर्जन्म का बंधन नहीं बनता है। ….इसी अध्याय के 11वें श्लोक में कहते हैं कि कोई भी मनुष्य मुझे जैसे भजता है, उसे मैं भी वैसे ही भजता हूं; जो भगवान में मन लगाए रहते हैं, उनकी रक्षा प्रभु अवश्य करते हैं। ईश्वर जिसकी रक्षा करते हैं उन्हें कर्म कैसे बांध सकते हैं !
ऐसे ही उक्त अध्याय के 26वें श्लोक में कहा गया है – जिस मनुष्य की दसों इंद्रियां अनुशासित हैं (यानि आसक्ति वाले दोष से मुक्त हैं) उसे किसी भी कर्मव्य कर्म का दोष नहीं लगता है। सीधे शब्दों में यों कहें कि जो मनुष्य विविध स्वादों में आसक्त इंद्रियों के अनुसार कार्य नहीं करता है; केवल आत्मा की आवाज के अनुसार कर्तव्य पूरे करता है वह पुनर्जन्मकारी बंधन में नहीं बंधता है। उसके खाते में भोग कर्म संचित नहीं होते हैं। ….तो अनुशासित मानसिक अवस्था में कर्तव्य कर्म करने से किसी भी तरह का कोई बंधन नहीं बंधता है। यही परमात्मा की कर्म द्वारा की जाने वाली पूजा है। योगावस्था में कर्म करना ही भगवान की पूजा है। यही गीता का कर्मवाद है।
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