गीता, अध्याय अठारह, श्लोक 63)

भगवान ने अर्जुन को सारी बातें समझा दीं। कर्तव्य कर्म, निष्काम कर्म, विपरीत कर्म, भक्ति, ज्ञान, सगुण-निर्गुण ईश्वर आदि। बता दिया कि तेरह तरह के वैदिक यज्ञों से भी ऊपर है कर्तव्य कर्म। समझा दिया कि मेरे ध्यान में रहते हुए सारे कर्मों का फल मेरे को अर्पित कर देने से किसी भी कर्म का दोष नहीं लगता है।
उसका डर मिटाने के लिए परमात्मा का विराट रूप दिखा दिया। सारी कौरव सेना को आठों महारथियों सहित मरते हुए बता दिया। फिर भी अर्जुन की धर्म-अधर्म संबंधी दुविधा नहीं मिटी। वह मुंह लटकाए बैठा रहा। उसके मुंह से यह नहीं निकला कि – ठीक है, सारी बात समझ गया। अब आप जो कहोगे वही करूंगा।
इसलिए 63वें श्लोक में कृष्ण कहते हैं – ‘यथा इच्छसि तथा कुरु’ अर्थात जो तेरी इच्छा हो वह कर। समझाते हुए थक गये कृष्ण। ठहर गये कृष्ण। योगियों के लिए भी दुर्लभ विराट रूप दिखा देने के उपरांत भी उचित परिणाम नहीं निकला। भगवान ने चौथे अध्याय में उसे यहां तक कह दिया कि मेरी बात तेरे को ठीक नहीं लगे तो किसी तत्वदर्शी महात्मा की शरण में जा और धर्म-अधर्म का ज्ञान प्राप्त कर।
अर्जुन की अंत तक यह दुविधा थी कि मुक्ति के यदि चार उपाय (भक्ति, ज्ञान, कर्म और नाम यज्ञ) हैं, तो फिर मुझे जबरन युद्ध कर्म में क्यों धकेला जा रहा है। जबकि इसी अध्याय के 59, 60 श्लोक में कृष्ण ने समझाया कि तेरा क्षत्रिय स्वभाव ही तुझे अंततः तेरे लिए उचित युद्ध धर्म में ला देगा। अर्जुन फिर भी चुप बैठा रहा।
इसलिए भगवान ने कह दिया – मैं तेरे को जितना समझा सकता था, समझा दिया। यह कर्म-धर्म का अति ही गोपनीय ज्ञान है। अब तू जाने, तेरा काम जाने। अंततः 73वें श्लोक में अर्जुन कहता है कि सारी दुविधाएं मिट गईं। अब मैं आपका आदेश मानने के लिए तत्पर हूं।
मानव मन की आशंकाएँ, मोह, दुविधाएं, भय आदि भी इतने ज्यादा हठी होते हैं।