
कृष्ण ने जो भी कहा, डंके की चोट पर कहा। वहां आश्वासन नहीं, वचन है। कृष्ण वादा करते हैं। एक बार तो अठारहवें अध्याय के 65वें श्लोक में वे अर्जुन को यहां तक बोल देते हैं कि मेरी बात का यकीन कर, मैं सच कह रहा हूं।
नौवें अध्याय के 31वें श्लोक में कृष्ण कहते हैं कि बड़े से बड़ा पापी भी उनकी शरण में रह कर धर्मात्मा वाली गति को प्राप्त कर लेता है। उसे जीवन का मुख्य लक्ष्य यानि परम कल्याण उपलब्ध हो जाता है। बहुत बड़ी बात है यह। शास्त्र तो कहता है कि धर्म के आठ अंगों का पालन करने के बाद ही मनुष्य का कल्याण होता है। इनके भी अलग-अलग धर्मों में पृथक-पृथक रूप हैं। किंतु कृष्ण तो अठारहवें अध्याय के 66वें श्लोक में भी वादा करते हैं कि तू धरम-करम संबंधी सारी उलझनों को छोड़ कर मेरी शरण में आ जा। मैं तुझको तेरे सारे पापों से मुक्त कर दूंगा, तू चिंता मत कर। ऐसा केवल कृष्ण ही कहते हैं।
फिर कह दिया कि मेरे भक्त का पतन नहीं होता है, पुनर्जन्म नहीं होता है, वह मेरे पास रहता है। यही बात चौथे अध्याय के नौवें श्लोक में भी कही है। उनका कहना है कि मैं अपने भक्त के हृदय में रहता हूं और मेरा भक्त मेरे हृदय में रहता है।
33वें श्लोक मे कहा है कि मनुष्य चाहे किसी भी जाति का हो, किसी भी धर्म का हो, किसी भी वर्ग का तथा चाहे समाज से तिरस्कृत दुराचारी भी हो, मैं उसका भी उद्धार करता हूं। मेरी शरण में वह भी जीवन के उच्च लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है। वे योग्य-अयोग्य की बात नहीं कहते। उनका तो इतना ही कहना है कि मेरे ब्रह्मरूप की शरण में आ जाओ। चौथे अध्याय के 37वें श्लोक में बताते हैं कि जिस तरह आग में ईंधन जल कर राख हो जाता है वैसे ही ज्ञान के तेज से सारे भौतिक कर्मों के फल जल जाते हैं।
34वें श्लोक मे सबसे बड़ा वादा किया है – तू खुद का मन मेरे साथ लगा दे, मेरे भक्त की तरह जीवन के काम कर, मेरे में पूज्य भाव रख और अहंकार तेरे चरणों में विसर्जित कर दे। यदि तू ऐसा करता है तो अवश्य ही तुझे मेरे परम रूप ब्रह्म की अनुभूति होगी। अपनी यही बात नौवें अध्याय के 34वें और 11वें अध्याय के 55श्लोक मे कही है।
वे बार-बार कहते हैं कि शरणागत भक्त मनुष्य को ब्रह्म की अनुभूति संभव है -।