गीता,अध्याय अठारह, श्लोक 73 – सब विस्मृति में जी रहे हैं !

शिव शर्मा

विस्मृति यानि अपनी आध्यात्मिक सच्चाई को भूले हुए रहना। इसके विपरीत स्मृति यानि इस सनातन सत्य को जान लेना कि मैं बार-बार मरता रहने वाला शरीर नहीं हूं। मैं अनश्वर आत्मा हूं। जीव भाव से युक्त हो जाने से मैं ही जीवात्मा हूं। यही जीवात्मा नामधारी शरीर धारण करते हुए जन्म-जन्मांतर तक भटकती रहती है। हर जन्म में शरीर का नाम और रिश्ते बदल जाते हैं। इसलिए वर्तमान जन्म के शरीर और सारे सम्बन्धों के मोह में फंसे रहना विस्मृति या अज्ञान कहा गया है। जब तक ऐसी विस्मृति है तब तक मोह, संशय, संदेह, भय, लोभ, लालच, ईर्ष्या, द्वेष आदि भी हैं। श्रीकृष्ण जैसे गुरू की कृपा से ही ऐसी विस्मृति मिटती है और आत्मज्ञान वाली स्मृति वापस मिल जाती है।

अर्जुन पहले विस्मृति में जी रहा था। हम सब भी ऐसे ही विस्मृतिजन्य अज्ञान में जी रहे हैं। शरीर और शरीर के रिश्ते को ही सत्य मान कर अच्छा-बुरा व्यवहार करते रहते हैं। अर्जुन भी इसीलिए मोहग्रस्त था, संशय में था, पाप जनित भय से डरा हुआ था और कर्तव्य से संबंधित असमंजस था। यही स्थिति हम सबकी भी है, आजीवन चलती रहती है, राग-द्वेष बढ़ते रहते हैं। फिर अर्जुन ने गीता का पूरा उपदेश सुन लेने के बाद भी यह कहा कि – हे माधव, आपकी कृपा से मेरा आज्ञान दूर हो गया है और मुझे मेरी सनातन स्मृति वापस मिल गई है। इसका मतलब यह है कि केवल शास्त्र पढ़ लेने से स्मृतिजन्य ज्ञान नहीं होगा। इसके लिए किसी समर्थ गुरु की कृपा जरूरी है, उसकी नज़र जरूरी है, उसके द्वारा किया गया शक्तिपात जरूरी है। अन्यथा दीक्षा नाम ले लेने के बाद भी लोग आजीवन भटकते रहते हैं।
अर्जुन समझ गया कि: –
कोई किसी को नहीं मारता है। सब को काल ही मारता है, मारने के तरीके अलग हो सकते हैं। वह जान गया कि भीष्म, द्रोण, दुर्योधन व अन्य चचेरे भाई केवल इसी जन्म के रिश्ते हैं। न तो पिछले जन्म में यह मेरे साथ थे और न हीं अगले जन्म में हम साथ रहेंगे। वह समझ गया कि सारे विकार केवल देह को ही सत्य मान लेने का परिणाम हैं। हम सबके साथ भी ऐसी ही विडम्बना है। घर में, परिवार में, समाज में और मंदिर-आश्रमों में भी। जब तक गीता का ज्ञान भी किसी समर्थ गुरु द्वारा हमारे हृदय में नहीं उतारा जाता, तब तक किसी भी तरह का बदलाव संभव नहीं है।

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