गंभीर खतरे की घंटी है प्लास्टिक एवं माइक्रोप्लास्टिक

प्रकृति को पस्त करने, वायु एवं जल प्रदूषण, कृषि फसलों पर घातक प्रभाव, मानव जीवन एवं जीव-जन्तुओं के लिये जानलेवा साबित होने के कारण समूची दुनिया में बढ़ते प्लास्टिक एवं माइक्रोप्लास्टिक के कण एक बड़ी चुनौती एवं संकट है। पिछले दिनों एक अध्ययन में मनुष्य के मस्तिष्क में प्लास्टिक के नैनो कणों के पहुंचने पर चिंता जतायी गई थी। दावा था कि प्रतिदिन सैकड़ों माइक्रोप्लास्टिक कण सांसों के जरिये हमारे शरीर में प्रवेश कर जाते हैं। ऐसे तमाम नये राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय शोध-सर्वेक्षण-अध्ययन चेतावनी दे रहे हैं कि हमारी सांसों, पेयजल व फसलों में घातक माइक्रोप्लास्टिक की मौजूदगी एक गंभीर संकट है। विश्व की कई शोध पत्रिकाओं में छपे शोध-लेख समय-समय पर विभिन्न अध्ययनों के चेताने वाले निष्कर्ष प्रकाशित करते रहते हैं। संकट तो यहां तक बढ़ गया है कि प्लास्टिक के कण पौधों की प्रकाश संश्लेषण प्रक्रिया को प्रभावित करने लगे हैं, जिससे खाद्य श्रृंखला में शामिल कई खाद्यान्नों की उत्पादकता में गिरावट आ रही है। ऐसा निष्कर्ष अमेरिका-जर्मनी समेत कई देशों के साझे अध्ययन के बाद सामने आया है। दरअसल, प्लास्टिक कणों के हस्तक्षेप के चलते पौधों के भोजन सृजन की प्रक्रिया बाधित हो रही है। इस तरह माइक्रोप्लास्टिक की दखल भोजन, हवा व पानी में होना न केवल प्रकृति, कृषि, पर्यावरण वरन मानव अस्तित्व के लिये गंभीर खतरे की घंटी ही है। जिसे बेहद गंभीरता से लिया जाना चाहिए और सरकारों को इस संकट से मुक्ति की दिशाएं उद्घाटित करने के लिये योजनाएं बनानी चाहिए।
माइक्रोप्लास्टिक हमारे वातावरण का एक हिस्सा बन चुके हैं। प्लास्टिक की बहुलता एवं निर्भरता के कारण मौत हमारे सामने मंडरा रही है। हम चाहकर भी प्लास्टिकमुक्त जीवन की कल्पना नहीं कर पा रहे हैं, क्योंकि माइक्रोप्लास्टिक जीवन में हैं, हवा में हैं, पानी में हैं, नदी में हैं, समुद्र में हैं, बारिश में हैं, और इन सबके चलते वे हमारे भोजन में भी हैं, हम मनुष्यों के भी, पशुओं के भी और शायद सभी प्राणियों के जीवन में भी हैं। लगातार दूषित होते जल, जलवायु परिवर्तन, जैव विविधता और भूमि क्षरण जैसे मुद्दों पर सरकार की जागरूकता एवं सहयोग का भरोसा दिलाया जाता रहा है। प्लास्टिक प्रदूषण के खतरों को देखते  हुए सरकार ने ठान लिया है कि भारत में सिंगल यूज प्लास्टिक के लिए कोई जगह नहीं होगी। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पूर्व में ही देश को स्वच्छ भारत मिशन के तहत प्लास्टिक कचरे से मुक्त करने की अपील करते हुए एक महाभियान का शुभारंभ कर चुके हैं। प्लास्टिक के कारण देश ही नहीं, दुनिया में विभिन्न तरह की समस्याएं पैदा हो रही हैं। इसके सीधे खतरे दो तरह के हैं। एक तो प्लास्टिक में ऐसे बहुत से रसायन होते हैं, जो कैंसर का कारण माने जाते हैं। इसके अलावा शरीर में ऐसी चीज जा रही है, जिसे हजम करने के लिए हमारा शरीर बना ही नहीं है, यह भी कई तरह से सेहत की जटिलताएं पैदा कर रहा है। इसलिए आम लोगों को ही इससे मुक्ति का अभियान छेड़ना होगा, जागृति लानी होगी।
चिंता की बात यह भी है कि विकासशील देशों में सरकारें रोटी, कपड़ा व मकान जैसी मूलभूत सुविधाओं के जुगाड़ में लगे रहने और गरीबी की समस्या से जूझते हुए, स्वास्थ्य के उन उच्च गुणवत्ता मानकों को वरीयता नहीं दे पाती, जो अंतर्राष्ट्रीय मापदंडों के अनुरूप हों। शोधकर्ताओं ने केरल में दस प्रमुख ब्रांडों के बोतलबंद पानी को अध्ययन का विषय बनाया है। अध्ययन का निष्कर्ष है कि प्लास्टिक की बोतल के पानी का इस्तेमाल करने वाले व्यक्ति के शरीर में प्रतिवर्ष 153 हजार प्लास्टिक कण प्रवेश कर जाते हैं। निश्चय ही यह चिंता का विषय है। हालांकि, सर्वेक्षण के लिये केरल को ही चुनना और बोतलबंद पानी बेचने वाली भारतीय कंपनियों को चुनने को लेकर कई सवाल पैदा हो सकते हैं। पिछली सदी में जब प्लास्टिक के विभिन्न रूपों का अविष्कार हुआ, तो उसे विज्ञान और मानव सभ्यता की बहुत बड़ी उपलब्धि माना गया था, अब जब हम न तो इसका विकल्प तलाश पा रहे हैं और न इसका उपयोग ही रोक पा रहे हैं, तो क्यों न इसे विज्ञान और मानव सभ्यता की सबसे बड़ी असफलता एवं त्रासदी मान लिया जाए?
वैज्ञानिकों ने पाया है कि प्लास्टिक हम सबके शरीर मेें किसी-न-किसी के रूप में पहुंच रहा है। कैसे पहंुच रहा है, इसे जानने के लिए हमें पिछले दिनों अमेरिका के कोलोराडो में हुए एक अध्ययन के नतीजों को समझना होगा। अमेरिका के जियोलॉजिकल सर्वे ने यहां बारिश के पानी के नमूने जमा किए। ये नमूने सीधे आसमान से गिरे पानी के थे, बारिश की वजह से सड़कों या खेतों में बह रहे पानी के नहीं। जब इस पानी का विश्लेषण हुआ, तो पता चला कि लगभग 90 फीसदी नमूनों में प्लास्टिक के बारीक कण या रेशे थे, जिन्हें माइक्रोप्लास्टिक कहा जाता है। ये इतने सूक्ष्म होते हैं कि हम इन्हें आंखों से नहीं देख पाते। देखने में आ रहा है कि कथित आधुनिक समाज एवं विकास का प्रारूप अपने को कालजयी मानने की गफलत पाले हुए है और उसकी भारी कीमत माइक्रोप्लास्टिक के कहर के रूप में चुका रहा है। लगातार पांव पसार रही माइक्रोप्लास्टिक की तबाही इंसानी गफलत को उजागर तो करती रही है, लेकिन समाधान का कोई रास्ता प्रस्तुत नहीं कर पाई। ऐसे में अगर मोदी सरकार ने कुछ ठानी है तो उसका स्वागत होना ही चाहिए। क्या कुछ छोटे, खुद कर सकने योग्य कदम नहीं उठाये जा सकते?
पूरी दुनिया के लिए सिरदर्द बन चुके जल और वायु प्रदूषण से बचने के लिए विश्वभर में नए-नए उपाय किए जा रहे हैं। जबकि प्लास्टिक प्रदूषण की उससे भी ज्यादा खतरनाक एवं जानलेवा स्थिति है, यह एक ऐसी समस्या बनकर उभर रही है, जिससे निपटना अब भी दुनिया के ज्यादातर देशों के लिए एक बड़ी चुनौती है। कुछ समय पहले एक खबर ऐसी भी आई थी कि एक चिड़ियाघर के दरियाई घोड़े का निधन हुआ, तो उसका पोस्टमार्टम करना पड़ा, जिसमें उसके पेट से भारी मात्रा में प्लास्टिक की थैलियां मिलीं, जो शायद उसने भोजन के साथ ही निगल ली थीं। लेकिन अगर आप सोचते हैं कि प्लास्टिक सिर्फ हमारे आस-पास रहने वाले अबोध जानवरों के पेट में ही पहंुच रहा है, तो आप गलत हैं।
अध्ययन में पता चला था कि लगभग सभी ब्रांडेड बोतल बंद पानी में भी प्लास्टिक के ये सूक्ष्म कण मौजूद हैं। कनाडाई वैज्ञानिकों द्वारा माइक्रोप्लास्टिक कणों पर किए गए विश्लेषण में चौंकाने वाले नतीजे मिले हैं। विश्लेषण में पता चला है कि एक वयस्क पुरुष प्रतिवर्ष लगभग 52000 माइक्रोप्लास्टिक कण केवल पानी और भोजन के साथ निगल रहा है। इसमें अगर वायु प्रदूषण को भी मिला दें तो हर साल करीब 1,21,000 माइक्रोप्लास्टिक कण खाने-पानी और सांस के जरिए एक वयस्क पुरुष के शरीर में जा रहे हैं। दरअसल, अंतर्राष्ट्रीय बाजार में बोतलबंद पानी बेचने का बड़ा प्रतिस्पर्धी कारोबार है। आम आदमी के मन में सवाल उठ सकते हैं कि कहीं भारतीय बोतलबंद पेय बाजार को तो निशाने पर नहीं लिया जा रहा है। दुनिया के बड़े कारोबारी देश भारत के बड़े उपभोक्ता बाजार पर ललचाई दृष्टि रखते हैं। इसके बावजूद मुद्दा गंभीर है और हमारी सरकारों को अपने स्तर पर गंभीर जांच-पड़ताल करनी चाहिए।
अमेजन एवं फिलीपकार्ट जैसे आनलाइन व्यवसायी प्रतिदिन 7 हजार किलो प्लास्टिक पैकेजिंग बैग का उपयोग करते हैं। सरकारों के पास किसी भी नियम या अभियान को अमल में लाने के लिये सारे संसाधन उपलब्ध हैं, इन कम्पनियों को भी प्लास्टिकमुक्त भारत के घेरे में लेने के लिये कठोर कदम उठाने चाहिए। ऐसे में सवाल उठना स्वाभाविक है कि देश में सिंगल यूज प्लास्टिक के प्रयोग पर प्रतिबंध के बावजूद ये खुलेआम बिक क्यों रहा है? दुकानदारों व उपभोक्ताओं को तो इसके उपयोग पर दंडित करने का प्रावधान है, लेकिन सिंगल यूज प्लास्टिक उत्पादित करने वाले उद्योगों पर प्रतिबंध क्यों नहीं लगाया जाता? संकट का एक पहलू यह भी है कि लोग सुविधा को प्राथमिकता देते हैं, लेकिन प्लास्टिक के दूरगामी घातक प्रभावों को लेकर आंख मूंद लेते हैं। यह संकट हमारी जिम्मेदार नागरिक के रूप में भूमिका की जरूरत भी बताता है।

(ललित गर्ग)
ई-253, सरस्वती कंुज अपार्टमेंट
25 आई॰ पी॰ एक्सटेंशन, पटपड़गंज, दिल्ली-92

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