
एक भाई ने लिखा कि प्रेम के बिना प्रार्थना सम्भव नहीं। यह तो बड़ी अजीब बात है। प्रेम में दो का अस्तित्व ही नहीं और प्रार्थना में दो का होना जरूरी है – एक वह जो प्रार्थना करता है तथा दूसरा वो जिससे ( ईश्वर, गुरु या दाता) प्रार्थना की जाती है।
प्रेम में तो कर्ता है ही नहीं। मै है ही नहीं। जिस में प्रेमोदय हुआ वह ( उसका मै या अहम्) तो मिट गया। अब प्रार्थना कौन करे। दूसरी बात यह कि जो प्रेम में छूबा है उसे कुछ चाहिये ही नहीं, प्रार्थना क्यों करे।
उद्धव जी वृंदावन गये। पूछा कि राधा कहां है ? राधा की अनन्य सखी ललिता ने राधा की तरफ संकेत करते हुए कहा – यह तो कृष्ण है, यहां राधा कोई नहीं है। यह है प्रेम में मिट जाने का दृष्टांत। कोई प्रार्थना नहीं, याचना नहीं, आरती नहीं, वंदना नहीं ; फिर भी वह ‘राधाकृष्ण’ हो गई और हम सब उसकी पूजा करते हैं। उधर कृष्ण कहते थे कि मै ही राधा भी हूं। राधा तो मेरे अंदर है। प्रेम तो ऐसा ही होता है, शेष तो देह का भावाद्दीपन है।
हीर रांझा की प्रेम कहानी बहुत प्रसिद्ध है। हीर कहने लगी – मै रांझा हूं, मेरे को हीर मत कहो। द्वक्त मिट गया। कश्मीर की लल्लेश्वरी ने शिव से प्रेम किया। जंगल में निर्वस्त्र रहती थी। कंद मूल खा लेती और झरने का पानी पी लेती। प्रार्थना नहीं की, मांगा नहीं। फिर अंततः उसी प्रेम में विसर्जित हो गयी। लोक समाज के लिए देवी बन गई। राजसमंद की भूरी बाई ने कृष्ण से प्रेम किया और आजीवन मौन हो गई – न प्रार्थना, न याचना। अरब देश की जुलेखा को युसूफ से प्रेम हो गया। बीस साल बाद दानो मिले। युसूफ ने निकाह के लिए कहा। जुलेखा बोली – तुम मेरे लिए इबादत हो, देह नहीं। प्रेम में खो गई वह स्त्री रूहानी हो गई, स्थूल स्त्री रही ही नहीं।
अमीर खुसरो को अपने पीर औलिया निजामुद्दीन से आंतरिक लगाव था। उस लगाव की चरमावस्था में उसने कहा –
खुसरो रैन सुहाग की जागी पिव के संग।
तन मेरा मन पीव का, दाउ े एक ही रंग।।
कह दिया कि मेरे शरीर में मन तो मेरे पीर का है। इसलिए अब द्वैत नहीं है, दोनो एक ही हैं।
कबीरदास जी थे तो ज्ञानी किंतु उन में सूफियों के प्रेम की रंगत भी थी। ईश्वरीय प्रेम में डूब कर अद्वैत हो गये –
लली मेरे लाल की जित देखूं तित लाल।
लली देखन जो गई, मै भी हो गई लाल।। जीव-ब्रह्म एक हो गये। प्रेमी और प्रिय एक हो गये। उनके पास एक आदमी गया। बोला कि ईश्वर से प्रेम की विधि क्या है ? कबीर बोले – तेरा सिर काअ कर जमीन पर रख दे। फिर समझाया कि अपने मै को मिटा दे। पिता, पुत्र, पति, भाई आदि सारे सांसारिक रिश्तों को ब्रह्म में लीन कर दे ।हम लोगों के बीच कहां है प्रेम ? केवल किताबें हैं, केवल बातें हैं, उपदेश हैं, कोरे शब्द हैं, दिखावा है।
अतः प्रेम तो स्वयं ब्रह्म है। प्रेम ही ईश्वर है। प्रेम ही गुरु है। किुतु यह क्रिया नहीं है। यह प्रयत्न नहीं है। यह तो वो दैवीय विभूति है जो किसी नसीब वाले के हृदय में उतरती है।