मूल कवित्री-देवी नागरानी

नारी कोई भीख नहीं
न ही मर्द कोई पात्र है
जिसमें उसे उठाकर उंडेला जाता है
जिसे उलट-पुलट कर देखा जाता है
उसके तन की खुशबू का
मूल्य आँका जाता है
खरीदा जाता है, इस्तेमाल किया जाता है…!
तद पश्चात उसे
तोड़ मरोड़ कर यूं फेंका जाता है
जैसे कोई कूड़ा करकट फेंकता है…!
अब अवस्था बदलनी चाहिए
अब वे हाथ कट जाने चाहिए
जो औरत को
अपना माल समझकर
आदान-प्रदान की तिजारती रस्में
निभाने की मनमानी करते हैं
यह भूल जाते हैं—
वह जिंदा है, सांस ले रही है,
आग उगल सकती है….
नहीं! सोच भी कैसे सकते हैं?
वे, जो अपने ही स्वार्थ की इच्छा के
सड़े गले बीहड़ में वास करते आ रहे हैं
गंद दुर्गंध उनकी सांसों में
मांसभक्षी प्रवृती व्यापित करती है
वही तो हैं, जो उसके
तन को गोश्त समझकर
दबोचते, चबाते, निगलते स्वाद लेते हैं
भूल जाते हैं कि
कभी वह गले में
फांस बनकर अटक भी सकती है…!
देवी नागरानी
भोजपुरी अनुवाद – डॉ अन्नपूर्णा श्रीवास्तव

मेहरारू कवनो भीख नइखी
मेहरारू कवनो भीख नईखी
ना मरद कवनो बरतन ह ऽ…
जेमे ओके उठायके उझीलल जाला
उलीट – पलीट के देखल जाला
ओकर देहिया के गंध क
मोल लगावल जाला
कीनल जाला
जरुरत पुगावल जाला…
फेर ओकरा अईंठ- पईंठ के
अइसन फेंकल जाला
जऽइसे बहारन बिगाला!
अबो तऽ दिन फिरे के चाऽही
ओह हथवे कट जाऽय के चा ऽहीं
जौन तिरियन के आपन माल समझेला…!
अदान – परदान के बहरनियावय
चलन चलाइ के
आपन मनऽवा पुगावेला…!
इहो भोल परा जाला…
के ऽ उँऽ जियत विया ,
सवाँस ले रहल विया-
आगि उगिल सकेला…!
नाऽ ह! सोचियो कइसे सकेला…?
उऽत आपन सुआरथ क इचछा मं
सड़ऽल – गऽलल बीहड़ में रहऽत
आ रहल बा…
गोस के वास सुंघत – सुंघत
उ मास-भक्छी बऽन गइल बा…
उहे तऽ ओकर देहि के मास समझि के
दबोऽचते, चबऽइते निगऽलते
सवाद लिहऽते बिसर जाला
कि उँ कांट बनि के
अटकियो सकेला…!
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