अनेको मान्यताओं के अनुसार काशी के एक जुल्लाह नीरू अपनी बीबी नीमा का गोना कराकर लहरतारा तालाब से होते हुए घर आ रहे थे तो उसकी बीबी नीमा को प्यास लगने लगी तब दोनों तालाब पर पानी पीने तब उन्होंने एक टोकरी में फूल-पत्ते की शय्या पर एक नवजात शिशु को देखा | नीरू-नीमा उस शिशु को उठाकर अपने घर ले आये और उसका लालन पालन करने लग गये | वही बालक कबीर के नाम से प्रख्यात हुआ । इस प्रकार कबीर साहेब का जन्म-स्थान काशी है । कुछ लोगों का विचार है कि नीरू-नीमा को अपने गौना के समय नहीं, किन्तु उसके कई वर्षों के बाद लहरतारा पर बालक को देखा था | सवाल उत्पन्न होता है कि शिशु लहरतारा तालाब पर कहाँ से आया ? इस बारे में मान्यता है कि एक विधवा या कुमारी ब्राह्मणी की कोख से यह शिशु पैदा हुआ था वो समाज से अपमानित होने के भय से नवजात बालक को लहरतारा तालाब पर छोड़ गयी थी। इस तरह से कबीर जन्म से हिन्दू थे किन्तु उनका लालन पालन मुस्लिम परिवार के अंदर हुआ था |
बालक कबीर की शादी बचपन में ही कर दी थी | कबीर दास जी की पत्नी का नाम लोई था कबीर दास जी के एक पुत्र और एक पुत्री भी थी पुत्र का नाम कमाल था और पुत्री का नाम कमाली था यह उनकी रचनाओं द्वारा प्रमाणित होता है |
मान्यताओं के अनुसार सद्गुरु कबीर का जन्म विक्रमी संवत 1456 की जेष्ठ शुल्क पूर्णिमा को काशी में हुआ था | कबीर पंच तत्वों में विलीन माघ शुक्ल एकादशी संवत् 1575 को मगहर में हुए थे| कबीर साहेब ने 120 वर्ष तक सांप्रदायिक सद्दभाव का संदेश दिया था | समस्त देश के अंदर 11 जून 202,5 को संत कब्बर का जन्मोत्सव हर्ष उल्लास के साथ मनाया जायगा |
कबीर दास जी काशी के गंगा घाट के किनारे रहा करते थे ऐसा कहा जाता है कि कबीर दास जी गंगा घाट के किनारे बैठे हुए थे तभी वहां पर भक्गुति काल के प्रुरमुख गुरु रामानंद जी स्नान कर रहे थे रामानंद की नजर कबीर दास पर पड़ी जिसके कारण कबीर के मुंह से राम शब्द निकल पड़ा इसी राम शब्द को सुनकर गुरु रामानंद अत्यधिक प्रसन्न हुए तभी से रामानंद ने कबीर दास जी को अपना शिष्य बना लिया। उन्हें शिक्षा दी इस प्रकार कबीर दास जी के गुरु श्री रामानंद जी थे गुरु रामानंद जी ने कबीर दास को ज्ञान और भक्ति के दर्शन कराएं तथा उनके ज्ञान को विकसित करने में गुरु रामानंद जी ने भूमिका निभाई। कबीर दास जीसंत की साथ साथ दार्शनिककवि और समाज सुधारक भी थे | कबीर दास जी के मुख्य रचनाएंक रचनाएं(1) कबीर की साखियां (2) सबद (3) रमणी हैं | कबीर दास जी की सर्वोत्तम रचनाओं में उन पुस्तक सबद भी है है इस रचना में कबीर दास जी ने प्रेम और अंतरंग साधना का वर्णन खूबसूरती से किया गया है। संत कबीर की साखियां में ज्यादातर कबीर दास जी की शिक्षाओं का उल्लेख मिलता है और उसके सिद्धांतों का वर्णन इस रचना में बखूबी से किया गया है। कबीर दास जी ने अपना सारा जीवन काशी में रहकर ही लोगों के कल्याण के लिए और सामाजिक बुराइयों और कुरुतियों का अंत करने के लिए लगा दिया मृत्यु के समय कबीरदास जी मगहर चले गए जो कि उत्तर प्रदेश में पड़ता है ऐसा कहा जाता है कि उस समय मगहर में रहने वाले लोगों को नर्क की प्राप्ति होती थी कबीर दास जी ने इसी अंधविश्वास को झूठा साबित करने के लिए मगहर चले गए कबीर दास जी की मृत्यु के समय मगहर चले गए ताकि समाज में फैली हुई अंधविश्वास को जड़ से रोका जा सके
कबीर की निष्पक्षता, दो टूक कहने का ढंग और बड़े-बड़े रहस्यात्मक गुत्थियों को सरल-सहज उपमाओं के द्वारा व्यक्त करने की शैली की वजह कबीर को भक्ति काल के संतों में प्रमुख संत माना गया है | ।
कबीर जी का मानना है कि जीवात्मा कह रही है कि ‘तू है’ ‘तू है’ कहते−कहते मेरा अहंकार समाप्त हो गया। इस तरह भगवान पर न्यौछावर होते−होते मैं पूर्णतया समर्पित हो गई। अब तो जिधर देखती हूँ उधर तू ही दिखाई देता है।संत कबीर कहा करते थे कि मेरे पास अपना कुछ भी नहीं है। मेरा यश, मेरी धन-संपत्ति, मेरी शारीरिक-मानसिक शक्ति, सब कुछ तुम्हारी ही है। जब मेरा कुछ भी नहीं है तो उसके प्रति ममता कैसी? तेरी दी हुई वस्तुओं को तुम्हें समर्पित करते हुए मेरी क्या हानि है? इसमें मेरा अपना लगता ही क्या है?
इसीलिए उन्होंने बतलाया कि मेंरा मुझ में कुछ नहीं, जो कुछ है सो तेरा। तेरा तुझकौं सौंपता, क्या लागै है मेरा॥
कबीरजी ने उपदेश दिया की यह माया बड़ी पापिन है। यह प्राणियों को परमात्मा से विमुख कर देती है तथाउनके मुख पर दुर्बुद्धि की कुंडी लगा देती है और राम-नाम का जप नहीं करने देती। अत: संत कहते है की कबीरमाया पापणीं, हरि सूँ करे हराम।मुखि कड़ियाली कुमति की, कहण न देई राम॥ यह माया बड़ी पापिन है। यह प्राणियों को परमात्मा से विमुख कर देती है तथा उनके मुख पर दुर्बुद्धि की कुंडी लगा देती है और राम-नाम का जप नहीं करने देती।
सारे संसारिक लोग पुस्तक पढ़ते-पढ़ते मर गए कोई भी पंडित (वास्तविक ज्ञान रखने वाला) नहीं हो सका। परंतु जो अपने प्रिय परमात्मा को सुमिरन करता है अथवा अक्षर जपता है (या प्रेम का एक अक्षर पढ़ता है) वही सच्चा ज्ञानी होता है। वही परम तत्त्व का सच्चा पारखी होता है।पोथी पढ़ि-पढ़ि जग मुवा, पंडित भया न कोइ।
एकै आखर प्रेम का, पढ़ै सो पंडित होइ॥ आवन जावन ह्वै रहा, ज्यौं कीड़ी का नाल॥
बेटा पैदा होने पर हे प्राणी थाली बजाकर इतनी प्रसन्नता क्यों प्रकट करते हो?जीव तो चौरासी लाख योनियों में वैसे ही आता जाता रहता है जैसे जल से युक्त नाले में कीड़े आते-जाते रहते हैं।
ड़े, यह तुम्हारी मूर्खता है कि तुम पहले जाति पूछते हो, फिर उसके हाथ का पानी पीते हो। तुम जिस मिट्टी के घर में बैठे हो उसमें सारी सृष्टि समाई हुई है। छप्पन करोड़ यादव और अठासी हज़ार मुनि यहाँ डूब गए और क़दम−क़दम पर गड़े हुए पैग़म्बरों की लाशें सड़कर मिट्टी हो गई है। अरे पाँड़े, ये बर्तन उसी मिट्टी के हैं और तुम जाति पूछकर पानी पीते हो। इस पानी में मगर, कछुए और घड़ियाल बच्चे देते हैं और उनका ख़ून पानी में मिल जाता है। इस नदी के पानी में सारा नर्क (गंदी चीज़ें) बहकर आता है और जानवर और इंसान सब इसमें सड़ते हैं। जब हड्डी और गूदा गल जाता है तब दूध बनता है। इस दूध को लेकर पाँड़े भोजन करने बैठते हैं लेकिन सारी छुआछूत मिट्टी में मानते हैं। हे पाँड़े, वेद और क़ुरान सबको छोड़ दो। ये सब दिल का धोखा है। कबीर कहते हैं कि ये तुम्हारे कर्म हैं जो तुम्हारे सामने आते हैं। शाश्वत सत्य की बातें कहते हुए भी किसी परंपरा से जुड़े रहकर किसी धर्मग्रंथ, ईश्वर-अवतार, पैगंबर आदि की बैसाखी पकड़े रहे, वहाँ कबीर सारी परंपराओं से हटकर सबके सार-तत्व को स्वीकार करते हुए “पक्षपात नहि बचन, सबहिं के हित” की बातें कहते रहे, वह भी सरे बाजार चौराहे पर खड़े होकर एक अकेला और निर्द्वन्द्व |
उनकी सत्यनिष्ठा एवं निष्पक्षता ने उनके व्यक्तित्व को ऐसा महनीय मोहक और चुम्बकीय बना दिया था कि जो उनके पास गया, उनका ही होकर रह गया ।
कबीरदेव ऐसे महत्तम संत हैं जो केवल भारतीय परंपरा ही नहीं, अपितु विश्व मानवता के मूल उत्स को पकड़ते हैं और सबको वहीं ले जाना चाहते हैं, जहाँ पहुँचकर वर्ण, वर्ग एवं मत-पंथगत सारे भेदभाव निस्सार हो जाते हैं और जहाँ से प्रेम की निर्मल, स्निग्ध और शीतल धारा प्रवाहित होकर सबको सराबोर कर देती है ।
पूरी मानवता को आत्मसात करने वाली प्रेम की निर्मल धारा में कबीरदेव ऐसे चौराहे पर खड़े हैं, जहाँ सारे रास्ते आकर मिलते हैं। यह कहना अतिष्योक्तेकति नहीं होगी कि कबीर में पूरी मानवता का सार समाया हुआ है ।
“कबीर पहले भारतवासी हैं, जिन्होंने सारी मानव जाति के लिए एक सामान्य धर्म का निर्भीकता के साथ उपदेश दिया |”
कबीर साहेब की वाणियों में आये हुए आध्यात्मिक रूपकों के रहस्य को न समझकर तथा उनका मूल रहस्य खोल कर महान काम किया है। विद्वानों ने उनको गृहस्थ सिद्ध करने की चेष्टा की है जो सर्वथा अनर्थ है ।
कुछ विद्वान कबीर साहेब को आजीवन गृहस्थ बताते हैं और कुछ बताते हैं कि वे पहले गृहस्थ थे किन्तु पीछे से विरक्त हो गये थे ।
यह सर्वविदित है कि कबीर साहेब “देश विदेशे हौं फिरा ” होते हुए भी m जीवात्मा कह रही है कि ‘तू है’ ‘तू है’ कहते−कहते मेरा अहंकार समाप्त हो गया। इस तरह भगवान पर न्यौछावर होते−होते मैं पूर्णतया समर्पित हो गई। अब तो जिधर देखती हूँ उधर तू ही दिखाई देता है। तूँ तूँ करता तूँ भया, मुझ मैं रही