
बीते कुछ वर्षों में पहाड़ों में बारिश एवं बादल फटना अब डर, कहर और तबाही का पर्याय बन गई है। उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, सिक्किम, और पूर्वाेत्तर के अन्य पहाड़ी राज्यों में हर वर्ष मानसून के साथ भयावह भूस्खलन, बादल फटना, पुल बहना और सड़कें टूटना एक आम दृश्य बन गया है। यह केवल प्राकृतिक आपदा नहीं है, बल्कि एक व्यवस्थागत विफलता, सरकारी निर्माण की लापरवाही और अनियोजित विकास की पोल खोलने वाला यथार्थ है। निश्चय ही हाल के वर्षों में बारिश के पैटर्न में बदलाव आया है और बारिश की तीव्रता बढ़ी है। हर वर्ष जब मानसून की पहली बारिश पहाड़ों को भिगोती है, तो स्थानीय जनजीवन एक नई उम्मीद के साथ खिल उठता है। खेतों में हरियाली, नदियों में जल, और प्रकृति की शीतलता-मानसून एक उत्सव जैसा लगता है। लेकिन हालिया मानसूनी बारिश और मौसमी विक्षोभ की जुगलबंदी से हिमाचल के कई इलाकों में तबाही का जो भयावह मंजर उभरा, उसे हमें कुदरत के सबक के तौर पर देखना चाहिए। बड़ी संख्या में लोगों की मौत व लापता होने के साथ ही अरबों रुपये की निजी व सार्वजनिक संपत्ति का नुकसान हुआ है।
2023 और 2024 के मानसून ने हिमाचल और उत्तराखंड जैसे राज्यों में जो कहर बरपाया, वह केवल आँकड़ों में सीमित नहीं है। दर्जनों लोग मारे गए, सैकड़ों मकान जमींदोज़ हो गए, हजारों लोग बेघर हुए। हाइड्रो प्रोजेक्ट्स, सड़कों, सुरंगों और इमारतों के निर्माण ने जिस तरह से पहाड़ों की प्राकृतिक संरचना के साथ छेड़छाड़ की, वह अब प्रकृति के प्रतिशोध का कारण बन रही है। उत्तराखंड में ‘ऑल वेदर रोड’, हिमाचल में सुरंगें और जल विद्युत परियोजनाएं-इन सभी ने विकास के नाम पर जिस प्रकार अंधाधुंध खुदाई और कटान किए हैं, उससे पर्वतीय क्षेत्र अपनी स्थायित्व खोते जा रहे हैं। वैज्ञानिक चेतावनियों के बावजूद कई निर्माण कार्यों में भूगर्भीय सर्वेक्षण की अनदेखी की गई। नतीजा यह हुआ कि हल्की-सी भारी बारिश में ही सड़कें धंस जाती हैं, इमारतें दरकने लगती हैं, और पूरा गाँव मलबे में दब जाता है। वास्तव, पहाड़ी इलाकों में अतिवृष्टि से आपदा का जो भयावह मंजर उभर रहा है, उसके मूल में सिर्फ जलवायु परिवर्तन ही मुख्य कारक नहीं है। दरअसल, इस तबाही के मूल में हमारी नाजुक हिमालयी पारिस्थिकीय तंत्र के प्रति बड़ी लापरवाही भी है। इस तथाकथित विकास के नाम पर हमने उन सीढ़ीनुमा रास्तों को दरकिनार कर दिया, जो पहाड़ों को मजबूती देते थे।
पहाड़ी क्षेत्रों में भूस्खलन कोई नई बात नहीं है, लेकिन हाल के वर्षों में इनकी तीव्रता और आवृत्ति में ज़बरदस्त वृद्धि देखी गई है। इसकी मुख्य वजहें हैं-अनियंत्रित पहाडों की कटिंग और खुदाई, बढ़ता भारी वाहन यातायात, जल निकासी की अव्यवस्था एवं वन क्षेत्र का अत्याधिक क्षरण। सरकारी निर्माण एजेंसियां अक्सर तय मानकों की अनदेखी करती हैं। निर्माण सामग्री घटिया होती है और मुनाफाखोरी के चक्कर में दीवारें और पुल बरसात में ताश के पत्तों की तरह ढह जाते हैं। राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (एनडीएमए), भारतीय मौसम विभाग (आईएमडी) और पर्यावरण वैज्ञानिक लगातार चेताते रहे हैं कि हिमालयी क्षेत्र बेहद संवेदनशील हैं। फिर भी, निर्माण कार्यों के लिए भू-सर्वेक्षण, पर्यावरण प्रभाव मूल्यांकन (ईआईए) और जनसुनवाई की प्रक्रियाओं को या तो टाल दिया जाता है या खानापूर्ति भर की जाती है। चार धाम यात्रा मार्ग पर बनने वाली सड़क परियोजनाओं को सुप्रीम कोर्ट ने भी कई बार रोका और सुझाव दिए कि पहाड़ों को काटने की बजाय टनल या वैकल्पिक मार्ग बनाए जाएं, लेकिन ज़मीनी हकीकत इससे उलट है।
निश्चय ही पूरी दुनिया में ग्लोबल वॉर्मिंग के चलते मौसम के बिगड़े तेवर नजर आ रहे हैं, लेकिन पहाड़ों में जल-प्रलय सी आपदा का विनाश निश्चय ही भयावह है। वैज्ञानिकों को इस तथ्य पर गंभीरता से विचार करना चाहिए कि पहाड़ों में बादल फटने की घटनाओं में अप्रत्याशित वृद्धि क्यों हुई है। इस साल की मानसूनी बारिश में मंडी जिले में बादल फटने की घटनाओं ने बुनियादी ढांचे, घरों, सड़कों और बगीचों को जिस तरह से नुकसान पहुंचाया है, उसने पहाड़ों में विकास के स्वरूप को लेकर फिर नये सिरे से बहस छेड़ दी है। राज्य के तमाम महत्वपूर्ण राजमार्ग भूस्खलन और अतिवृष्टि से बाधित रहे हैं। कांगड़ा घाटी में ऐतिहासिक रेल परिवहन को स्थगित करना पड़ा है। शिमला के पास एक बहुमंजिला इमारत के भरभरा कर गिरने के सोशल मीडिया पर वायरल वीडियो ने भयभीत किया। जब बारिश आती है, तो केवल इमारतें और सड़कें नहीं ढहतीं, आम लोगों का जीवन भी उजड़ जाता है। लोग रातोंरात बेघर हो जाते हैं। स्कूल, अस्पताल, बिजली-पानी की सुविधाएं बंद हो जाती हैं। प्रशासनिक अमला अकसर घटनास्थल पर देर से पहुँचता है और राहत कार्यों में राजनीतिक रस्साकशी आड़े आ जाती है। राहत कैंपों में भोजन, शौचालय और दवाइयों की भारी कमी रहती है। जब किसी राज्य में बड़ी आपदा आती है, तभी मीडिया और नेताओं की नज़र जाती है। हेलिकॉप्टर से निरीक्षण, मुआवज़े की घोषणाएं, और ‘हम साथ हैं’ जैसे बयान आते हैं। लेकिन जैसे ही मौसम सामान्य होता है, पीड़ितों की सुध लेने वाला कोई नहीं रहता। लंबे समय तक पुनर्वास और पुनर्निर्माण कार्य अधर में लटकते हैं।
निश्चय ही मौसम के मिजाज में तल्खी नजर आ रही है लेकिन इस संकट के मूल में कहीं न कहीं अवैज्ञानिक विकास, खराब आपदा प्रबंधन और निर्माण में पारिस्थितिकीय ज्ञान की उपेक्षा भी निहित है। जिसने इस संकट को और अधिक बढ़ाया है। दरअसल, पानी के प्रवाह के जो प्राकृतिक रास्ते थे, हमने उन पर बहुमंजिली इमारतें खड़ी कर दी हैं। हमने अपेक्षाकृत नयी हिमालयी पर्वतमालाओं पर इतना भारी-भरकम विकास व निर्माण लाद दिया कि वे इस बोझ को सहन नहीं कर पा रही हैं। निर्माण कार्य में स्थानीय पारंपरिक वास्तुकला और प्राकृतिक सामग्री का प्रयोग बढ़ाया जाए। भू-सर्वेक्षण और ईआईए को अनिवार्य किया जाए, हर निर्माण से पहले वैज्ञानिक स्तर पर ज़मीन की जाँच और पर्यावरण प्रभाव मूल्यांकन आवश्यक हो। वनों की अंधाधुंध कटाई को रोका जाए और जलग्रहण क्षेत्रों को पुनर्स्थापित किया जाए। गाँवों और कस्बों के स्थानीय लोगों को निर्णय प्रक्रिया में शामिल किया जाए ताकि निर्माण कार्य ज़मीनी ज़रूरतों और जोखिमों के अनुसार हो।
हिमालय को केवल भूगोल नहीं, अध्यात्म का स्रोत भी माना जाता है। यहाँ की नदियां, पहाड़ और घाटियां धार्मिक, सांस्कृतिक और भावनात्मक महत्व रखती हैं। जब इन स्थानों पर अंधाधुंध निर्माण होता है, तो केवल भू-आकृति नहीं, सांस्कृतिक चेतना भी नष्ट होती है। पर्वतीय जीवन में तबाही के पीछे केवल प्रकृति नहीं, हमारी नीति, नियत और विकास का वह मॉडल ज़िम्मेदार है जो केवल तात्कालिक लाभ और मुनाफे पर केंद्रित है। हम पहाड़ों को केवल पर्यटक स्थल या परियोजना-स्थल की दृष्टि से न देखें, बल्कि वहां के पर्यावरण, संस्कृति और जीवन पद्धति को समझें और संरक्षण का दायित्व लें। नहीं तो हर बारिश के साथ पहाड़ों से जीवन खिसकता जाएगा और एक दिन यह संकट केवल स्थानीय न रहकर राष्ट्रीय बन जाएगा। दरअसल, पहाड़ों की संवेदनशीलता को देखते हुए नये सिरे से निर्माण के मानक तय करने होंगे। वहीं दैनिक जल निकासी और बरसाती पानी के प्रवाह के लिये वैज्ञानिक ढंग से व्यवस्था करनी होगी। निश्चित रूप से पहाड़ों में लगातार बढ़ती जनसंख्या और बुनियादी ढांचे में पहाड़ की प्राथमिकताओं को नजरअंदाज करने की कीमत हम चुका रहे हैं। भविष्य में ऐसी आपदाओं को टालने के लिये अतीत के सबक सीखकर हमें विकास के नये मानक तय करने होंगे। ऐसा लगता है कि किसी का इस पर ध्यान ही नहीं कि यदि बुनियादी ढांचे से जुड़े निर्माण की गुणवत्ता पर ध्यान नहीं दिया जाएगा तो जैसा हादसा मंडी अथवा शिमला में हुआ, वैसे हादसें होते ही रहेंगे और उनका दोष प्रकृति पर मढ़कर कर्तव्य की इतिश्री कर ली जाएगी। बात केवल हिमाचल की ही नहीं है, उत्तराखंड में भी कुछ स्थानों पर भूस्खलन होने से तीर्थयात्री संकट में पड़े हैं। इसका कोई मतलब नहीं कि हम बार-बार विकसित भारत की बात करें, लेकिन सरकारी निर्माण कार्यों की गुणवत्ता की अनदेखी करें और मानक होते हुए भी उनका पालन न करें। इस तरह से तो हम विकसित देश नहीं बन सकते। प्रेषकः
(ललित गर्ग)
लेखक, पत्रकार, स्तंभकार
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