मन की गलियों में धूल बहुत है,
शब्दों में भी कभी भूल बहुत है।
अनजाने में जो आघात हुए,
उनके कारण रिश्ते खंडित हुए।
आज अहंकार सब त्याग रहा हूँ,
तेरे चरणों में सिर झुका रहा हूँ।
क्रोध, ईर्ष्या के हर आलम से,
मुक्ति माँगता हूँ अपने कर्म से।
मिच्छामि दुक्कडम् कहता हूँ दिल से,
क्षमा कर देना तुम सरल सिलसिले से।
जहाँ न रहे वैमनस्य की डोर,
बस प्रेम बहे जैसे निर्मल झरने का छोर।
भवभ्रमण में हम सब पथिक हैं,
त्रुटियों के जाल में फँसे अशांत हैं।
क्षमा से ही निर्मल होती आत्मा,
यही धर्म का है शुद्धतम साधना।
तो आओ आज प्रतिज्ञा करें,
न क्रोध, न छल, न कटुता धरें।
हर रिश्ते में बस प्रेम बढ़े तमाम,
यही है जीवन का सच्चा धाम।
“राहत टीकमगढ़”