तमिलनाडु के करूर में तमिलगा वेट्री कषगम (टीवीके) प्रमुख और सुपर अभिनेता से नेता बने विजय की चुनावी रैली के दौरान मची भगदड़ दुर्भाग्यपूर्ण होने के साथ स्तब्ध करने एवं पीड़ा देने वाली भी है। विजय की रैली में एक बार फिर भीड़ की बेकाबू उन्मत्तता ने 40 मासूम जिंदगियों को निगल लिया। सवाल उठता है कि आखिर कब तक ऐसी त्रासदियां हमारे समाज और शासन की नाकामी को उजागर करती रहेंगी? क्यों हमारी व्यवस्थाएं भीड़ को नियंत्रित करने में बार-बार विफल होती हैं और क्यों राजनीतिक दल, धार्मिक आयोजक, सिनेमा स्टार या अन्य तथाकथित ‘सेलिब्रिटी’ भीड़ के जमावड़े को सफलता का पैमाना मानकर उसे उकसाते हैं? भगदड़ में लोगों की जो दुखद मृत्यु हुई, यह राज्य एवं टीवीके प्रायोजित एवं प्रोत्साहित हत्या है। पुलिस का बंदोबस्त कहां था? चीख, पुकार और दर्द और अभिनेता से नेता बने विजय को देखने की दीवानगी एक ऐसा दर्दनाक एवं खौफनाक वाकया है जो सुदीर्घ काल तक पीड़ित और परेशान करेगा। प्रशासन की लापरवाही, अत्यधिक भीड़ और अव्यवस्थित प्रबंधन ने इस त्रासदी को जन्म दिया। यह घटना कोई अपवाद नहीं है, बल्कि हाल के वर्षों में दुनिया भर में सामने आई ऐसी घटनाओं की कड़ी का नया खौफनाक एवं दर्दनाक मामला है, जहाँ भीड़ नियंत्रण में चूक एवं प्रशासन, सत्ता एवं राजनीतिक दलों का जनता के प्रति उदासीनता का गंभीर परिणाम एवं त्रासदी का ज्वलंत उदाहरण है।
अभिनेता विजय की चमक में प्रशंसकोें की चीखें एवं आहें का होना और उसे नजरअंदाज करना, अमानवीयता की चरम पराकाष्ठा है। दुर्घटना होने एवं आम लोगों की मौतें दुखद एवं शर्मनाक है। इस राज्य में दशकों से विशाल राजनीतिक सभाओं की संस्कृति रही है, जिसे फिल्म और राजनीति के मेल ने पोषित किया है। सीएन अन्नादुरई, एमजी रामचंद्रन और जयललिता, सभी मुख्यमंत्री बनने से पहले फिल्मी सितारे थे। उनकी रैलियों में अक्सर लाखों लोग आते थे। स्टार पावर और राजनीति का मेल अधिकारियों के लिए भीड़ को नियंत्रित रखना मुश्किल बना देता है। तमिलनाडु में अभिनेता से राजनेता बने विजय की पार्टी टीवीके अभी प्रारंभिक अवस्था में है, लेकिन इसकी रैलियों में प्रशंसकों की अहमियत को कमतर आंकने के इस दुर्भाग्यपूर्ण घटनाक्रम ने न केवल राजनेताओं को बल्कि सिने स्टार को भी दागी किया है। घटना ने एक बार फिर हमारे अवैज्ञानिक व लाठी भांजने वाले भीड़ प्रबंधन की ही पोल खोली है।
करीब तीन महीने पहले जून में बंगलूरू में आरसीबी की आईपीएल जीत के जश्न के दौरान मची भगदड़ में भी करीब एक दर्जन लोग मारे गए थे। हालांकि, शनिवार रात करूर में उमड़ी भीड़ किसी राजनीति जमावड़े से अधिक अपने सुपरस्टार को करीब से देखने के लिए बेताब प्रशंसकों की थी। इसी उन्माद में, जब एक पेड़ की डाली पर चढ़े कुछ समर्थक अभिनेता की प्रचार गाड़ी के पीछे खड़े लोगों पर गिर पड़े, तो दहशत फैल गई और रैली एक हादसे में बदल गई। इसी में करीब 40 लोगों के मरने और कइयों के घायल होने की खबरें हैं। तमिलनाडु में, 2026 में चुनाव होने हैं और टीवीके बेशक मैदान में उतरने की घोषणा कर चुकी हो, लेकिन दुर्घटना के बाद विजय जिस तरह से जल्दबाजी में चार्टड फ्लाइट से चेन्नई चले गए, उससे यही साबित होता है कि अभी उन्हें राजनीति के कई सबक एवं राजनीतिक मूल्यों को सीखने हैं। क्योंकि आखिर वह अपनी जिम्मेदारी से कैसे बच सकते हैं? टीवीके ने तीस हजार लोगों की अनुमति ली थी और इसी हिसाब से पुलिस की तैनाती भी हुई थी। लेकिन शाम होते-होते इसके दोगुने लोग अभिनेता की एक झलक पाने को मौजूद थे।
निश्चित ही भीड़ कोई संगठित चेतन शक्ति नहीं होती, यह एक उन्मादी प्रवाह है जिसमें व्यक्ति की सोच, विवेक और संवेदना विलीन हो जाती है। भीड़ के सामने व्यक्ति का आत्मनियंत्रण टूट जाता है और वह हिंसक, अनुशासनहीन और खतरनाक रूप ले लेती है। यही कारण है कि क्रिकेट मैच से लेकर राजनीतिक रैली, धार्मिक आयोजन और फिल्मी सितारों की झलक तक, हर जगह भीड़ का जुनून कई बार मौत का तांडव बन जाता है। इतिहास गवाह है कि भीड़ की हिंसा ने न केवल जानें ली हैं, बल्कि सामाजिक ताने-बाने को भी चोट पहुंचाई है। 1984 के सिख विरोधी दंगे, 1992 का बाबरी मस्जिद प्रकरण, गुजरात हिंसा, धार्मिक जुलूसों में भगदड़ या तीर्थयात्राओं में दबकर मरने वाले सैकड़ों लोग-इन सबकी जड़ में ‘भीड़’ है। भीड़ के भीतर छिपा हुआ सामूहिक उन्माद किसी भी क्षण हिंसा, लूट और तबाही में बदल जाता है।
भारत में भीड़ से जुड़े हादसे अनेक आम लोगों के जीवन का ग्रास बनते रहे हैं। धार्मिक आयोजनों हो या खेल प्रतियोगिता, राजनीतिक रैली हो या सांस्कृतिक उत्सव लाखों लोगों को आकर्षित करते हैं, जहाँ भीड़ प्रबंधन की मामूली चूक भयावह त्रासदी में बदलते हुए देखी जाती रही है। उदाहरण के लिये, वर्ष 2022 में दक्षिण कोरिया के इटावन हैलोवीन समारोह में अत्यधिक भीड़ के कारण 150 से अधिक लोगों की जान चली गई थी। इसी तरह, वर्ष 2015 में मक्का में हज के दौरान मची भगदड़ में सैकड़ों लोगों की मौत हो गई थी। वर्ष 2013 में मध्य प्रदेश के रत्नागढ़ मंदिर में ढाँचागत कमियों से प्रेरित भगदड़ के कारण 115 लोगों की मौत हो गई थी। हालही में महाकुंभ के दौरान नई दिल्ली रेल्वे स्टेशन एवं प्रयागराज में हुए हादसे एवं हरिद्वार के प्रसिद्ध मनसा देवी मंदिर में बिजली का तार टूटने और करंट फैलने की एक अफवाह ने कई जानें ले लीं, जिसने धार्मिक स्थलों पर भीड़ प्रबंधन की गंभीर खामियों को उजागर कर दिया है। आग, भूकंप, या आतंकी हमलों जैसी आपातकालीन स्थितियाँ में भी भीड़ प्रबंधन की पौल खुलती रही है। आखिर दुनिया के सर्वाधिक जनसंख्या वाले देश में हम भीड़ प्रबंधन को लेकर इतने उदासीन क्यों है? बड़े आयोजनों-भीड़ के आयोजनों में भीड़ बाधाओं को दूर करने के लिए, भीड़ प्रबंधन के लिए बुनियादी ढांचे में सुधार, सुरक्षाकर्मियों को पर्याप्त प्रशिक्षण प्रदान करना, जन जागरूकता बढ़ाना और आधुनिक तकनीकों का उपयोग करना अब नितान्त आवश्यक है।
विजय और उनके समर्थक कुछ भी कहें, वे अपनी जवाबदेही से बच नहीं सकते। इसलिए और नहीं बच सकते, क्योंकि उन्होंने अपनी रैली में आने वाले लोगों की संख्या के बारे में भी कोई सही जानकारी नहीं दी थी। बहुत संभव है कि इसके चलते पुलिस ने भी पर्याप्त व्यवस्था न की हो। तमिलनाडु में सेलेब्रिटी स्टेटस वाले लोगों के प्रति दीवानगी कुछ ज्यादा ही है। सबसे बड़ी विडंबना यह है कि हर त्रासदी के बाद सरकारें और पुलिस प्रशासन सिर्फ ‘जांच समिति’ और ‘मुआवजा’ देने की घोषणा करके अपने कर्तव्य से मुक्त हो जाते हैं। न तो कोई ठोस नीतियां बनती हैं, न ही आयोजकों पर कठोर जिम्मेदारी तय की जाती है। आयोजकों की लापरवाही और प्रशासन की ढिलाई इन घटनाओं की सबसे बड़ी वजह हैं। यदि समय रहते सुरक्षा प्रबंधन और भीड़ नियंत्रण की सख्त व्यवस्था हो, तो ऐसी भयावह स्थितियों को टाला जा सकता है। भीड़ की त्रासदी केवल प्रशासनिक विफलता का परिणाम नहीं है, बल्कि यह हमारे सामाजिक मनोविज्ञान का भी प्रतिबिंब है। आमजन की ‘हीरो-दीवानगी’ और अंधभक्ति किसी भी भीड़ को अनियंत्रित बना देती है। जब तक नागरिक चेतना में संयम और विवेक नहीं आएगा, तब तक भीड़ केवल संख्या का खेल बनी रहेगी और उसका परिणाम विनाशकारी होता रहेगा। अब वक्त आ गया है कि सरकारें भीड़ प्रबंधन को ‘राष्ट्रीय सुरक्षा एजेंडा’ में शामिल करें। राजनीतिक दलों, धार्मिक आयोजकों और सिनेमा जगत को भीड़ जुटाने की प्रवृत्ति पर पुनर्विचार करना होगा। यह ठीक है कि करूर की घटना पर सभी ने शोक संवेदना व्यक्त की, लेकिन यदि इस घटना से कोई ठोस सबक नहीं सीखा जाता तो इन संवेदनाओं का कोई मूल्य नहीं, बल्कि ये खोखली दिखावा मात्र हैं। इसलिए यह जरूरी है कि भीड़ की हिंसा और त्रासदी को केवल ‘संयोग’ न माना जाए, बल्कि उसे रोकने के लिए गंभीर कदम उठाए जाएं। अन्यथा यह सिलसिला न केवल जारी रहेगा, बल्कि हर बार अधिक भयावह होता जाएगा। आखिर इतने लोगों की मौत की जिम्मेदारी तय होनी चाहिए और दोषी लोगों को कड़ा दण्ड दिया जाना चाहिए। प्रेषकः
(ललित गर्ग)
लेखक, पत्रकार, स्तंभकार
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