
आप मंदिर में दीपक जलाते हो, दूसरे की मदद की तस्वीर डालते हो,और जी हाँ, कैप्शन में बड़ा सुंदर विचार भी लिख लेते हो। पर असल जिंदगी में आपके शब्दों की महक अक्सर कटुता की परतों से ढकी रहती है। किसी के चमकते साँचे पर जलन की बूँदें गढ़ोते समय आपकी आँखों में कोई शर्म नहीं; बस यह डर रहता है कि कहीं आपकी बनायी हुई सच्चाई का पर्दाफाश न हो जाए।
देखिए, दिखावा करना तो कला बन चुकी है -पवित्रता की दुकान गुलजार है और दुकानदार हमेशा व्यस्त। आप बड़े विनम्रता से ‘भला-भला’ बोलते हो, पर जिस पल आपको मौका मिले, उसी विनम्रता से पीछे का दरवाज़ा खोलकर कोई गड्ढा खटाखट खोद देते हो। और फिर उसी गड्ढे में खुद ही अटक जाते हो – पर अहंकार आपको गिरने नहीं देता; आप गिरना पसंद नहीं करते, क्योंकि गिरना तो प्रशंसा के पन्नों पर टिके रहने से ज्यादा नुकसान पहुंचाता है।
सोचिए अगर राम सच में चाहिए तो लोग इतनी शर्त क्यों रखते हैं? “मैं राम बनूँगा-पर मेरी शर्तें हैं : पहले मेरा फायदा, फिर मेरी प्रशंसा, बीच में थोड़ा दिखावा, और अंत में दूसरों की बदनामी। अजीब राम है जो सिर्फ तब बनता है जब दर्शक मौजूद हों। सच्चा राम तो पर्दे के पीछे भी वही रहता है; वह न तो चुगली करता है, न छल करता है, न किसी के लिए गड्ढा खोदता है।
और हाँ, वह रावण – सबका प्रिय दोस्त – कभी शोर नहीं करता। वह चुपचाप काम करता है: ईर्ष्या की लकड़ी, अहंकार की ज्वाला, झूठ की ईँधन। उसे जलाना है तो उसे पहचानो। उसे झूठे पोस्टों से नहीं, अपने रोज़मर्रा के कामों से जलाओ। आप हर त्यौहार पर तस्वीरें डाल कर संतोष पा लेते हो, पर क्या आपकी सुबह का पहला विचार कभी दूसरों की भलाई पर जाता है, या वही पुराना ‘मैं-मैं’रटता है?
यह लेख किसी का नाम लेने नहीं आया, पर हर उस चेहरा को देख रहा है जो आत्महत्या नहीं करता पर दूसरों को गिराने में सुकून पाता है। हर उस मुस्कान को देख रहा है जो अभिनय है; हर उस विनम्रता को देख रहा है जो पर्ची पर लिखी हुई स्क्रिप्ट से अधिक कुछ नहीं।
आप चाहो तो अभी बदल जाओ – दिखावे का मंच छोड़ दो। राम बनने के लिए प्रदर्शन नहीं, अभ्यास चाहिए; रोज़ की छोटी-छोटी जीतें: सच्चाई बोलना, मदद बिना शर्त की, और किसी के बुरे पल पर खुशी न मानना। या फिर आराम से वहीं बैठो, रावण पालो, और त्योहार पर बड़े गर्व से उसकी तस्वीर जलाते रहो।
पर याद रखिए – जब आप गड्ढा खोदते हो किसी के लिए, तो आपकी खुद की जड़ें भी झर ही जाती हैं। और एक दिन आप पाओगे कि वो दिखावटी रामत्व भी छोड़ चुका है- क्योंकि असली विजय सिर्फ बाहर के पुतले नहीं, भीतर के अँधेरों की जीत है।
रेनू ‘शब्दमुखर’