राजनीति की भाषा क्यों बिगड़ रही है? – अब लगाम ज़रूरी है

रेखा यादव

अजमेर की राजनीति इन दिनों अपने सबसे बदरंग दौर से गुजर रही है।
नेता चाहे किसी भी दल के हों – कांग्रेस, भाजपा या कोई और — सोशल मीडिया पर एक-दूसरे के खिलाफ अपमानजनक भाषा, तंज़, कटाक्ष और झूठे आरोपों की बाढ़ सी आ गई है।
जो मंच जनता की सेवा और संवाद के लिए बने थे, वही अब नफरत और छींटाकशी का अखाड़ा बनते जा रहे हैं।
राजनीति विचारों की लड़ाई होनी चाहिए, चरित्र हनन की नहीं।
लेकिन आज हालत यह है कि चुनाव से पहले ही पोस्टर, वीडियो और मीम्स के ज़रिए एक-दूसरे को नीचा दिखाने की होड़ लगी है।
जनता के मुद्दे, विकास की बातें, और सामाजिक सरोकार पीछे छूट गए हैं, आगे बस व्यक्तिगत हमले और नफरत भरी भाषा रह गई है।

🔹 सोशल मीडिया पर लगाम क्यों ज़रूरी है:
1. मानहानि और भ्रम फैलाने की प्रवृत्ति – झूठे आरोप और फेक पोस्ट से जनता गुमराह होती है।
2. युवाओं पर बुरा प्रभाव – नई पीढ़ी यह सीख रही है कि राजनीति मतलब गाली-गलौज और तंज कसना।
3. समाज में विभाजन – ऐसे संदेश लोगों के बीच अविश्वास और नफरत पैदा करते हैं।
4. राजनीतिक शुचिता पर आघात – सच्चे कार्यकर्ताओं का मनोबल टूटता है।

🔹 अब क्या कदम उठाए जाने चाहिए:
1. सोशल मीडिया मॉनिटरिंग सेल को और सशक्त बनाया जाए, जो हर आपत्तिजनक पोस्ट पर तुरंत कार्रवाई करे।
2. चुनाव आयोग और पुलिस विभाग को ऐसे मामलों में सख्ती दिखानी चाहिए – चाहे व्यक्ति कितना भी बड़ा हो।
3. राजनीतिक दलों में आचार संहिता कमेटी बनाई जाए जो अपने ही नेताओं की भाषा पर नियंत्रण रखे।
4. जनता को भी सतर्क रहना होगा – फेक खबरें शेयर करने से पहले सत्यापन करें।
5. शिक्षा और प्रशिक्षण के ज़रिए राजनीतिक शिष्टाचार को बढ़ावा दिया जाए।

🔹 निष्कर्ष:
राजनीति अगर समाज का दर्पण है, तो यह दर्पण साफ़ रहना चाहिए।
नेताओं को समझना होगा कि जनता सब देख रही है — अब सिर्फ भाषण नहीं, उनका व्यवहार भी जनमत तय करता है।
अजमेर जैसी ऐतिहासिक और संस्कारी नगरी में राजनीति का यह स्तर हमारे समाज की गरिमा के अनुरूप नहीं है।
समय आ गया है कि हर राजनीतिक दल और हर नागरिक इस गंदे खेल को “ना” कहे और लोकतंत्र की मर्यादा को फिर से जीवित करे।

लेखिका: रेखा यादव,

सामाजिक कार्यकर्ता एवं संस्थापक,

नारी शक्ति संगठन, अजमेर

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