बिहार में चुनावी रणभेरी बज चुकी है। मतदान की तिथियों की घोषणा के साथ ही लोकतंत्र का यह महायज्ञ आरंभ हो चुका है, जिसमें करोड़ों मतदाता दो चरणों में दिनंाक 6 और 11 नवंबर को अपने मत के माध्यम से राज्य की दिशा और दशा दोनों तय करेंगे। इस बार का चुनाव सिर्फ सत्ता परिवर्तन का नहीं, बल्कि विचार और व्यवस्था परिवर्तन का चुनाव है। बिहार लंबे समय से जिस पिछड़ेपन, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार और अराजकता की बेड़ियों में जकड़ा रहा है, उससे मुक्ति का यह अवसर है। 14 नवंबर को मतगणना के साथ बिहार में नई सरकार की तस्वीर सामने होगी, लेकिन राज्य में सियासत जिस तरह आकार ले रही है, मतदान तक कई उतार-चढ़ाव देखने को मिल सकते हैं। बिहार के राजनीतिक इतिहास पर नजर डालें तो यह धरती कभी बुद्ध की करुणा और चाणक्य की नीति की जननी रही है, लेकिन आज वही बिहार कानून व्यवस्था की विफलताओं, जातिवाद की जंजीरों और विकासहीनता की विवशताओं से जूझ रहा है। सड़कें टूटी हैं, शिक्षा व्यवस्था जर्जर है, चिकित्सा तंत्र कमजोर है, और रोजगार की तलाश में हर साल लाखों युवा अपनी मातृभूमि छोड़ने को विवश हैं। ऐसे में यह चुनाव एक सामाजिक जागृति का अवसर भी है, जब मतदाता केवल चेहरे नहीं, चरित्र और चिंतन को वोट देंगे।
राजनीतिक दल अपनी-अपनी घोषणाओं, वादों और दृष्टि-पत्रों के साथ मैदान में हैं। कोई “नया बिहार” बनाने का नारा दे रहा है, तो कोई “विकसित बिहार” का। लेकिन सवाल यह है कि क्या घोषणाओं से बिहार का भाग्य बदलेगा, या फिर यह चुनाव भी परंपरागत नारों और जातीय समीकरणों के हवाले हो जाएगा? यह समय है कि जनता दलों से नहीं, दिशा से जुड़ाव करे; नारे से नहीं, नैतिकता से संवाद करे। पिछले दो दशकों से नीतीश कुमार बिहार का चेहरा बने हुए हैं और यह चुनाव भी अलग होता नहीं दिख रहा। मूल सवाल यही है कि क्या नीतीश को एक और मौका जनता देगी? राज्य में एनडीए ने उन्हें आगे कर रखा है और महागठबंधन से सीधी टक्कर मिल रही है। 2005 से नीतीश कुमार बीच केे कुछ समय को छोड़ कर सत्ता पर काबिज हैं। इस दौरान उन्होंने 9 बार शपथ ली और कई बार पाला बदला। गठबंधन के साथी बदलते रहने और कम सीटों के बावजूद मुख्यमंत्री वही बने। इसके पीछे उनकी अपनी ‘सुशासन बाबू’ की छवि भी है, लेकिन अब इसे चुनौती मिल रही है। पहली बार नीतीश सरकार को भ्रष्टाचार के आरोपों में घेरने की कोशिश हो रही है। वहीं, कानून-व्यवस्था का मामला भी चिंता बढ़ाने वाला है। हाल के महीनों में पटना में व्यवसायी गोपाल खेमका और हॉस्पिटल में घुसकर गैंगस्टर की हत्या ने सरकार की परेशानी बढ़ाई। नीतीश और भाजपा ने लालू-राबड़ी यादव के कार्यकाल को हर चुनाव में जंगलराज की तरह पेश किया, पर अब सवाल विपक्षी दल पूछ रहे हैं। यह चुनाव ऐसे अनेक सवालों के घेरे में हैं।
विकास पर जोर के बावजूद बिहार की राजनीति में जाति एक निर्णायक कारक है। हर पार्टी की चुनावी रणनीति समुदाय आधारित लामबंदी से गहराई से प्रभावित है। दोनों प्रमुख गठबंधन एनडीए ओर महागबंधन सीट बंटवारे की बातचीत में उलझे हैं। 243 विधानसभा सीटों में से गठबंधन में से किस पार्टी को कितनी सीटें मिलेंगी और किसे कोन-सी सीट मिलेगी, यह विवाद का विषय है। पिछले विधानसभा चुनाव में एनडीए और महागठबंधन के बीच सीधा मुकाबला हुआ था- इस बार समीकरण में प्रशांत किशोर की जन सुराज भी है, जो भ्रष्टाचार ओर पलायन का मुद्दा उठाए हुए हैं। कुछ और भी नये राजनीतिक दल मैंदान में हैं। बिहार की सबसे बड़ी चुनौती कानून व्यवस्था और प्रशासनिक सुदृढ़ता की है। आए दिन होने वाली अपराध घटनाएं और अराजकता ने राज्य की छवि को धूमिल किया है। एक ऐसा शासन चाहिए जो भयमुक्त समाज दे सके, जहां नागरिक सुरक्षित महसूस करें, जहां अपराध पर अंकुश हो और न्याय त्वरित मिले। विकास तभी संभव है जब विश्वास का माहौल बने।
बिहार की राजनीति में इस बार कई नए दल और कई पुराने चेहरे नए दल के साथ दिखाई देने वाले हैं। प्रशांत किशोर की पार्टी ‘जनसुराज’, तेजप्रताप यादव की पार्टी जनशक्ति जनता दल, उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी राष्ट्रीय लोक मोर्चा और पशुपति पारस की राष्ट्रीय लोक जनशक्ति पार्टी पहली बार बिहार विधानसभा के चुनाव में नजर आने वाली है। ऐसे में सभी दल चुनावी जंग में ताल ठोकने को तैयार है। मगर देखने वाली बात ये होगी कि कौन सी पार्टी अपना कितना दम दिखा पाती है? क्या प्रशांत किशार की पार्टी उनके दावे के अनुसार प्रदर्शन करती है या फुस्स साबित होती है, वहीं, तेजप्रताप यादव अपनी पार्टी बनाकर तेजस्वी यादव को कितना झटका देते है। यह सब अब चुनाव के परिणाम पर तय होगा। साथ ही यह भी तय होगा कि कौन सी पार्टी अपना अस्तित्व बचा पाती है कौन नहीं? यह चुनाव बिहार की आत्मा को झकझोरने वाला क्षण है। यहां की जनता अब सिर्फ रोटी-कपड़ा-मकान नहीं, बल्कि शिक्षा, रोजगार, स्वास्थ्य, और सम्मानजनक जीवन चाहती है। यह चुनाव इस आकांक्षा का प्रतीक है। जो भी दल इस वास्तविकता को समझेगा, वही बिहार का भविष्य गढ़ पाएगा।
आज बिहार के मतदाता अधिक सजग एवं विवेकशील हैं। वे जानते हैं कि सत्ता परिवर्तन से अधिक जरूरी है संस्कृति परिवर्तन, राजनीतिक शुचिता और प्रशासनिक जवाबदेही। यह चुनाव केवल विधानसभा की सीटें तय नहीं करेगा, बल्कि यह तय करेगा कि क्या बिहार अपनी पुरानी परछाइयों से निकलकर प्रकाश की ओर बढ़ पाएगा। क्योंकि बिहार में पिछड़ेपन, भ्रष्टाचार, अराजकता की चर्चा होती रहती है, इसलिये यह स्वाभाविक है कि राज्य का विकास, कानून व्यवस्था एवं रोजगार का मुुद्दा भी पक्ष-विपक्ष के बीच एक प्रमुख चुनावी मुद्दा होगा। हालांकि पिछली सरकारों केे दौर में बिहार बदहाली के दौर से काफी निकल चुका है और विगत दो दशक में यहां की स्थितियां काफी बदली है। इस बार बिहार चुनाव बदला-बदला होगा, इसकी आहट उन घोषणाओं से भी मिलती है, जो नीतीश सरकार ने की हैं। महिलाओं, दिव्यांगों और बुजुर्गों के लिए पहली बार इस पैमाने पर ऐलान किए गए हैं। वहीं आरजेडी और कांग्रेस ने पूछा है कि इसके लिए पैसा कहां से आएगा? जनता वादों पर भरोसा करती है या बदलाव संग जाती है, जवाब मिलने में ज्यादा वक्त नहीं लगेगा।
वैसे, बिहार चुनाव का इतना ज्यादा महत्व कोई नई बात नहीं है। विगत दो दशक से एक विशेष क्रम बना हुआ है। लोकसभा चुनाव के अगले साल बिहार विधानसभा के चुनाव होते हैं। केंद्र में जो पार्टी विपक्षी गठबंधन में रहती है, वह बिहार विधानसभा चुनाव में अपना पूरा जोर लगा देती है, जिससे चुनाव कुछ ज्यादा रोचक एवं उत्तेजक बन जाता है। सियासी स्थिति का आकलन करें, तो बिहार में लगभग बीस साल शासन के बावजूद जनता दल यूनाइटेड या नीतीश कुमार की ताकत को कोई भी खारिज नहीं कर रहा है। भाजपा पूरी मजबूती से नीतीश कुमार के साथ खड़ी है, ताकि सत्ता बनी रहे। दूसरी ओर, राष्ट्रीय जनता दल के नेतृत्व वाला महागठबंधन अभी नहीं, तो कभी नहीं वाले अंदाज में जोर लगा रहा है। लोकतंत्र की इस परीक्षा में बिहार एक नई इबारत लिख सकता है-एक ऐसा बिहार जो शिक्षित हो, संगठित हो, और सजग हो। जहां राजनीति सेवा का माध्यम बने, संघर्ष का नहीं; जहां सत्ता संवेदना की भाषा बोले, स्वार्थ की नहीं। बिहार का यह जनादेश वास्तव में इतिहास रच सकता है-यदि जनता “जाति” नहीं, “न्याय” को चुने; “वादा” नहीं, “विश्वास” को चुने। यह चुनाव बिहार के भाग्य परिवर्तन की कुंजी बन सकता है-बशर्ते हम सब मिलकर कहें- “अब की बार, सुशासन और सुधार।” प्रेषकः
(ललित गर्ग)
लेखक, पत्रकार, स्तंभकार
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