निरंजन परिहार
पीयूष पांडे संसार से चले गए, लेकिन संसार की सांसों में रहेंगे, आने वाली कई पीढ़ियों तक। क्योंकि जब भी कोई विज्ञापन दिल को छू जाएगा, वहां कहीं न कहीं पीयूष पांडे की आत्मा ज़रूर महसूस होगी। भारतीय विज्ञापन जगत का नाम लेते ही, जो चेहरा सबसे पहले सामने आता है, वह है पीयूष पांडे। वह शख्स जिसने विज्ञापन की दुनिया को महज़ प्रोडक्ट बेचने का ज़रिया नहीं, उसके प्रचार का साधन भी नहीं, बल्कि भावनाओं की भाषा बना दिया। उनके बनाए विज्ञापनों ने न सिर्फ़ ब्रांड्स को ऊंचाई दी, बल्कि लोगों के दिलों में भी सदा के लिए जगह बनाई। पीयूष पांडे की जिंदगी की कहानी सिर्फ़ एक सफल करियर की नहीं, बल्कि शब्दों से भावनाएं गढ़ने वाले कलाकार की है। उनकी बनाई दुनिया में हर विज्ञापन एक ख्वाब रचता रहा — जो मुस्कान देता है, यादें बनाता है और कहीं न कहीं हमें अपने भीतर झांकने पर मजबूर करता है। पंद्रह बरस पहले की बात है, जब उनके ऑफिस में मिलने जाना हुआ, तो वहां कोई कागज नहीं दिख रहा था और न ही पेन थी। पूछा कि लिखते कैसे हैं, तो बोले – शब्द जादू होते हैं, वे दिमाग में उपजते हैं, और दिल पर अंकित हो जाते हैं, बस…। वे ‘वन लाइनर’ के शहंशाह थे।

पीयूष पांडे के कई विज्ञापन यादगार के रूप में हर जुबान पर हैं। लूना मोपेड स्कूटर के ‘चल मेरी लूना’ के विज्ञापन से पीयूष ने पहली बार अपनी राष्ट्रीय पहचान बनाई, और विडंबना देखिए कि उन्होंने अपना यह पहला विज्ञापन पहली बार देखा भी तो, अपने पड़ोसी के घर में चल रहे ब्लैक एंड वाइट टीवी सेट पर, और वह भी गली में बाहर खड़े होकर खिड़की से। उनके एशियन पेंट्स के ‘हर घर कुछ कहता है’, विज्ञापन ने घर को सिर्फ दीवारों से नहीं, भावनाओं से जोड़ा। ‘फेविकोल का जोड़, ऐसा जो टूटे ना’ ने साधारण एडहेसिव के विज्ञापन को हास्य और संवेदना से उन्होंने इतना ताकतवर बना दिया कि ब्रांड अमर हो गया। केडबरी का ‘कुछ खास है जिंदगी में’, ने भारतीय उपभोक्ता के जीवन में मिठास और भावनाओं को एक नया अर्थ दिया। इसी तरह ‘मिले सुर मेरा तुम्हारा’ ने देश की एकता और विविधता को सुरों में पिरोकर सदा के लिए दिलों में बसा दिया। मोबाइल कंपनी ‘हच’ के लिए लिखा – जहां तुम, वहां हम’
फेवीक्वि के ‘तोड़ो नहीं, जोड़ो’ और पॉन्ड्स के लिए ‘गूगली वूगली वूश’ सहित बजाज स्कूटर के लिए ‘हमारा बजाज’ जैसे उनके हर कैंपेन में एक बात समान रही — ‘भारतीयता, सहजता और भावनात्मक जुड़ाव’।
राजस्थान की गुलाबी जयपुर में एक ब्राह्मण साधारण परिवार में 5 सितंबर 1955 को जन्मे पीयूष पांडे की परवरिश ऐसे माहौल में हुई, जहां भाषा, भावना और संवेदना का परस्पर गहरा असर था। ‘ये फेविकोल को जोड़ है, टूटेगा नहीं’, लिखने वाले पीयूष पांडे की सांसें 24 अक्टूबर की सुबह 5.50 बजे टूट गईं। परिवार का माहौल सांस्कृतिक था, सो बचपन से ही शब्दों के साथ उनका रिश्ता बड़ा गहरा था, शायद यही कारण है कि आगे चलकर उन्होंने शब्दों की जादूगरी का रहस्य जान लिया। पीयूष पांडे कहते थे कि उनका जन्म एक क्रिएटिव फैक्ट्री में हुआ था, जो कि सच भी था। जयपुर में पले – बढ़े पीयूष पांडे नौ भाई-बहनों वाले एक बड़े परिवार से थे, जिनमें कुल सात बहनें और दो भाई थे। छोटे भाई प्रसून पांडे फिल्म निर्माता हैं। बहन इला अरुण जानी मानी अभिनेत्री और गायिका, तृप्ति पांडे नामी लेखिका और रमा पांडे बीबीसी की चर्चित अनाउंसर हैं। सेंट स्टीफेंस कॉलेज, दिल्ली से उन्होंने पढ़ाई की और क्रिकेटर के रूप में वे राजस्थान रणजी टीम के कप्तान भी रहे।
पीयूष पांडे के शब्द कभी भारी-भरकम नहीं रहे, बल्कि सहज, सरल होने के बावजूद बेहद असरदार रहे। उनकी भाषा बोलचाल की, और शैली जीवंत है। वे जानते थे कि अच्छा विज्ञापन वही है, जो सीधे दिल में उतर जाए। उनका लेखन किसी कवि की तरह भावनात्मक और बाज़ार की तरह शुद्ध व्यावहारिक था, और यही संतुलन उन्हें अद्वितीय बनाती है। उनके शब्दों में ‘विक्रय’ नहीं, ‘संवाद’ था। उनके विज्ञापन इंसान की तरह सोचते थे, मशीन की तरह नहीं। उनकी इसी सोच ने उन्हें बाकी क्रिएटिव लोगों से सदा ऊपर रखा। चाहे ‘हर घर कुछ कहता है’ हो या कुछ खास है और या फिर भले ही हो गीत ‘मिले सुर मेरा तुम्हारा’, पांडे का हर कैंपेन भारतीयता की मिट्टी से सना हुआ लगता है। ‘अबकी बार मोदी सरकार’ का नारा उन्होंने लिखा तो सारा देश ‘मोदी – मोदी’ कर उठा।
पांडे ने अपने करियर की शुरुआत 1980 के दशक में ‘ओ एंड एम’ के नाम से मशहूर विज्ञापन कंपनी ‘ऑगिल्वी एड मैदर’ से की। उस दौर में भारतीय विज्ञापन उद्योग पश्चिमी प्रभावों से भरा हुआ था, लेकिन पीयूष पांडे ने उसे भारतीय भावनाओं की जमीन पर उतारा। जीवन के शुरुआती वर्षों में उन्होंने अर्थशास्त्र और मानव मन दोनों को गहराई से समझा, जिसने आगे उनके विज्ञापन लेखन को एक विशेष गहराई दी। उनका मानना था कि अगर भारतीयों से जुड़ना है, तो भारत के दिल की भाषा बोलनी होगी। उन्होंने सिखाया कि विज्ञापन सिर्फ़ सामान बिकवाने का नहीं, लोगों को उससे जोड़ने का माध्यम होते है। इसी सोच ने उन्हें विज्ञापन की दुनिया का ‘एड गुरू’ बना दिया। ‘ओगिल्वी’ ने उनके निधन पर श्रद्धांजलि स्वरूप जो विज्ञापन दिया, वह भी कमाल का है।
पीयूष पांडे को न केवल भारत में बल्कि अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भी सराहा गया। वे ‘ओगिल्वी वर्ल्डवाइड’ के चीफ क्रिएटिव ऑफिसर बने, यह पद पाने वाले वे पहले भारतीय थे। उन्होंने कई बार ‘कांस लॉयंस’ जैसे प्रतिष्ठित विज्ञापन पुरस्कार जीते। उन्हें ‘पद्मश्री’ से भी सम्मानित किया गया, जो इस क्षेत्र में उनके योगदान की आधिकारिक मान्यता रही। दुनिया पीयूष पांडे को केवल एक विज्ञापन विशेषज्ञ के रूप में नहीं, बल्कि उस व्यक्ति के रूप में याद रखेगी जिसने भारत की आत्मा को ब्रांड्स के ज़रिए दुनिया तक पहुंचाया। वे कहते थे कि ‘ब्रांड्स को इंसान की तरह पेश करो, तभी लोग उनसे जुड़ेंगे’। आज जब वे इस दुनिया में नहीं है, तो कह सकते हैं कि वे प्रेरणा बनकर उन तमाम युवाओं के दिलों में रहेंगे जो रचनात्मक सोच से समाज में बदलाव लाना चाहते हैं। आज और आने वाले कल में, जब भी कोई विज्ञापन दिल को छू जाएगा, वहां कहीं न कहीं पीयूष पांडे की आत्मा ज़रूर महसूस होगी।