
वो रेलवे माल गोदाम में रखे अनाज की बोरियों में उछलना कूदना तरह तरह के खेल खेलने से मिलने वाला आनंद आज भी मन को गुदगुदाता है…
आज आप सबको लिए चलता हूं जबलपुर के छोटे से स्टेशन हाऊबाग। अब तो शायद ही यह स्टेशन वजूद मे हो । बिलासपुर के बाद पिताजी का तबादला हाऊबाग नाम के एक छोटे से रेलवे स्टेशन में बतौर आर.पी. एफ. पोस्ट प्रभारी हुए। आदेशानुसार हम पहुंच गए हाऊबाग। बिलासपुर में चौथी तक मैंने पढ़ाई की थी। यहां पांचवी में भर्ती हो गया। हमारा क्वार्टर रेलवे माल गोदाम के पास ही था वही एक कोने में पिताजी का आफिस भी अवस्थित था। यहां मैने माल गोदाम में बहुत मस्ती की। अपने हमउम्र साथियों के साथ गोदाम में रखे अनाज की बोरियों में खूब धमा- चौकड़ी मचाते खूब खेलते थे। पर हां, हम तब तक ही खेल पाते तब जब तक कि हमारी मां या बहन द्वारा खाने के लिए बुलावा न आ जाए। बुलावा आया कि हमारा खेल खत्म। ऐसे ही गुजरते जा रहे थे वे दिन….
सचमुच वे दिन भी क्या दिन थे। खाओ खेलो खेलो खाओ बस। सुबह स्कूल जाओ। स्कूल से वापस आओ फिर खेल में जूट जाओ। बस वचपन की अमूमन यही दिनचर्या सबकी होती है। सचमुच रवीन्द्र जैन ने क्या खूब लिखा है —
“बचपन हर गम से बेगाना होता है….”
इस तरह मेरा गम से बेगाना वाले दिन यूं गुजरते जा रहे थे…. यह वाकया सन् 1959-60 के आसपास की है।
दरअसल जिस प्रसंग की याद की वजह से मैंने ये चर्चा छेड़ी है उसके केन्द्र में एक गाड़ीवान हैं, बैलगाड़ी चालक। शायद वो अब जीवित न हों, या हों भी। घटना की याद आते ही हाऊबाग के उस माल गोदाम बोलचाल में जिसे सभी ‘माल धक्का’ कहा करते थे, का दृश्य नजर के सामने और दिभाग में आ जाता है जो टीन का बना था और आकार में काफी बड़ा था। खूब लंबा चौड़ा उसका दायरा था। गोदाम के सामने का आहाता करीब 200 मीटर चौड़ा और 100-125 मीटर चौड़ा था। सुबह से ही बैलगाड़ियों का आना शुरु हो जाता, दिन भर में पचासों गाड़ियों का आना जाना लगा रहता था। गोदाम से माल ढोते और गाड़ी भर कर अपने गंतव्य के लिए निकल पड़ते। दिन भर बैलगाड़ी का तांता लगा रहता। माल लादते और निकल पड़ते। माल पहुंचा कर फिर वापस गोदाम आते इस तरह हरेक गाड़ीवान एक से अधिक फेरा लगाते। हम बच्चों के लिए ऐसे दृश्य रोज की आम बात थी, जो बात मुझे छूती थी वह एक गाड़ीवान की याद है। क्या कद था उसका क्या मजबूत बदन था। धोती बनियान ही अधिकतर गाड़ीवानों का पोशाक हुआ करती थी। जिस गाड़ीवान की बात कर रहा हूं वह कभी कभार वंडी और धोती भी पहनता था।बैलगाड़ी मे हमाल लोग माल ढोकर रखते थे साथ ही गाड़ीवान खुद भी अनाज का बोरा गाड़ी में रखने का काम करते। इससे होता यह था कि उनकी गाड़ी जल्द भर जाती फिर माल लेकर निकल पड़ते। अब तो एक बोरे का मतलब है 25 किलो है। ज्यादा से ज्यादा शायद 30- 40 किलो लेकिन उन दिनों एक बोरे का मतलब एक क्विंटल, 100 किलोग्राम होता था। उस एक क्विंटल की बोरी को भी किस आसानी से माल डिब्बे से पीठ और कमर के सहारे उठाकर बैलगाड़ी में रखते थे, देखते हो बनता था। पसीने से तर ब तर होकर वो अनाज के बोरे की लदान करते थे देखने वाले देखते ही रह जाते। इस काम में पुरुष हमाल ही नहीं महिला रेजा भी बराबर काम करती थीं। वे भी बराबर की मेहनत करती थीं मगर उनका मेहनताना पुरुषों की तुलना मे कम हुआ करता था जो आज भी कम है। माल लदान के उनके काम को हम हैरत से देखा करते जो खेल के बीच -बीच इन दॄश्यों को देखना हमारे लिए एक ब्रेक की तरह हुआ करता था। उनकी मेहनत को हम आश्चर्य चकित होकर देखा करते। विशेषकर मैं इनके कामों को गौर से देखा करता। उनमें से मेरा मुख्य पात्र वह गाड़ीवान भी था। इस बीच प्रत्येक गाड़ीवान के दो – चार चक्कर हो जाते तो दोपहर के भोजन का समय भी हो जाता है। वही एक बड़ा सा चबूतरा था। बीचोबीच पीपल का पेड़ भी था। पास में एक बड़ा सा कुंआ भी था। सभी गाड़ीवान उसी से पानी निकाल कर नहाते और कपड़े बदलकर खाने पर टूट पड़ते। लगभग सभी गाड़ीवान रोटी ही लाते थे। टिफिन कैरियर से उन्हें कोई मतलब न था। वे तो अपने खुराक के हिसाब से सब्जी रोटी किसी कपड़े पर या गमछे में लपेट कर लाते। मैं उनकी इस गतिविधियों को ताका करता। सभी गाड़ीवानों के गठीले और हष्ट-पुष्ट बदन देखने के काबिल होता। उनके बदन शरीर की बनावट कसावट स्वाभाविक रूप से किए गए परिश्रम का नतीजा था। उनका बदन न किसी जिम में जाने का नतीजा था न किसी ट्रेनर के सिखलाए एक्सरसाइज की वजह से वो मजबूत और सुंदर बदन के मालिक बने थे। इन्हीं मे से एक गाड़ीवान जिसने मेरा ध्यान खींचा था वह उन गाड़ीवानों में से एक था। वह सबमें मुझे विशेष लगता और वह मेरी याद में रह गया। वह नहाने के बाद कपड़े बदलकर खाने बैठता। वह भी सूखी रोटी ही लाता था। साथ में अचार की 1-2 फांके और इतनी ही कच्ची प्याज। बस इसी के सहारे वह सारी रोटियां बड़े प्रेम से चट कर जाता। और रोटियां भी कितनी मालूम? 2-4, या 8-10 नहीं बल्कि करीब एक फुट ऊंची रोटियां वह लाता था। शायद इससे भी थोड़ा अधिक या कम मैंने रोटियां कभी गिनी तो नहीं पर लगभग रोज रोज देखा दृश्य मेरी आंखों में छप सा गया था।मैंने देख देखकर ही ये एक फुट का अनुमान लगाया। इतनी सारी रोटियां देखी तभी तो याद रहीं और लगभग रोज रोज का देखना होता था। रोटी वह गमछे में लपेटकर लाया करता था। उस खुराक के हिसाब से वह मेहनत भी करता था। उनके उस एक वक्त की रोटी को खत्म करने में मुझ जैसे उम्र के बच्चे को शायद दो- चार दिन लग लग जाएं।
मुझे ऐसा लगता था वह गाड़ीवान अगर बढ़िया सा कोट पेंट शर्ट जूते आदि पहनकर अर्थात कायदे का ड्रेस या शूट पहन लेता तो अच्छे अच्छे फिल्मी हीरो की छुट्टी कर दे। वह इतना हैंडसम दिखता था पता नहीं यह सोच मेरे दिमाग में कैसे और क्योंकर उपजी! पर उपजी। मैं यही कहना चाहता हूं इतना सुंदर बदन और चेहरे मोहरे के मालिक को यहनने को सलीके का पोशाक भी उपलब्ध नही है। कोई ये सोच सकता है कि अपने निजी समय मे पहनता होगा।जी नहीं, कभी कभार किसी काम के लिए बिना बैलगाड़ी के भी वे लोग माल गोदाम आते थे तब भी वे धोती-बनियान या शर्ट पहनकर ही आते बस इतना होता था कि उनके धोती शर्ट साफ सुथरे और धुले हुए होते थे। यह भी मैंने देखा। खैर, ये दुनिया ऐसी ही है। बदन तो है पर ढंग के कपड़े नसीब नहीं है। किसी के पास कपड़े हैं पर पहनने का ढंग नहीं है। कपड़े है पर क्या करें बदन ढंक नही पाने की यजबूरी।आजकल अच्छे खासे और नए कपड़ों को फाड़कर पहनने की दीवानगी छाई हुई है। जिसे फैशन का नाम देकर तन के बजाय बेशरमी को ढंकने की मजबूरी के मारे हैं ये बेचारे। कभी तन को ढंकने के लिए कपड़े का ईजाद हुआ था।अब नए कपड़े फाड़कर पहनने और शरीर दिखाने के लिए ‘लेटेस्ट फैशन’ के नाम का ढक्कन ईजाद किया गया है। “बलिहारी जाऊं फैशन के इस नए तरीके के।” तो यही खत्म होता है उस गाड़ीवान की कथा और उसके बहाने मेरी व्यथा। पुराने दिनों को याद भी किया और घूम भी आए उन गलियों में, जिसे 60 वर्ष पहले गुजार आया था। यही तो आनंद है शब्दों को जोड़ने की कला का। अभी सीख रहा हूं, पता नहीं इन पंक्तियों से गुजरने वाले पाठकों को कितना आनंद मिलता है। मिलता भी है या नहीं! ये मुझे नही पता, कोशिश मेरी जारी है बस इतना कह सकता हूं….अभी चलता हूं फिर मिलूंगा….l दिल से धन्यवाद आप सब का…..00