सुप्रीम कोर्ट की सभी भाषाओं की अलग-अलग बेंच हो-2

-विकास कुमार गुप्ता- 26 जनवरी 1950 को भारत का संविधान लागू हुआ। संविधान के अनुच्छेद 343 से 351 तक भाषा से सम्बन्धित उपबन्धों का विवेचन किया गया है। अनुच्छेद 343 के अनुसार भारत की राजभाषा हिन्दी और लिपि देवनागरी निर्धारित की गयी है। और साथ में इस धारा के उप विन्दु 2 में कहा गया है कि ”किसी बात के होते हुए भी, इस संविधान के प्रारंभ से पन्द्रह वर्ष की अवधि तक संघ के उन सभी शासकीय प्रयोजनों के लिए अंग्रेजी भाषा का प्रयोग किया जाता रहेगा जिनके लिये उसका ऐसे प्रारंभ से ठीक पहले प्रयोग किया जा रहा था” यह उपबंध इंडियन कान्स्युक्वेन्सियल प्रोविजन एक्ट 1949 के परिप्रेक्ष्य में था। इसका लिंक हैhttp://www.legislation.gov.uk/ukpga/1949/92/pdfs/ukpga_19490092_en.pdf इसकों पढ़ने के बाद आप स्वतः समझ सकते है कि पन्द्रह वर्षों तक इसे क्यों रखा गया। आखिर क्यों अंग्रेजों के चले आ रहे भाषिक कानूनों को हू-ब-हू चलने दिया गया? आदि के उत्तर आपकों इस लिंक से मिल जायेंगे। बाकी के उत्तर आपकों इंडियन इंडेपेन्डेन्स एक्ट के कानून से लिंक से प्राप्त हो जायेगा जिसका लिंक http://www.legislation.gov.uk/ukpga/1947/30/pdfs/ukpga_19470030_en.pdf है।
अनुच्छेद 343 में आगे कहा गया है कि ”राष्ट्रपति उक्त अवधि के दौरान, आदेश द्वारा, संघ के शासकीय प्रयोजनों में से किसी के लिए अंग्रेजी भाषा के अतिरिक्त हिन्दी भाषा का और भारतीय अंको के अंतर्राष्ट्रीय रूप के अतिरिक्त देवनागरी रूप का प्रयोग प्राधिकृत कर सकेगा।“
राजीव दीक्षित जी ने इसपर खुलकर बोला है। ”आजादी की लड़ाई के समय सभी दौर के क्रांतिकारियों का एक विचार था कि भारत अंग्रेज और अंग्रेजी दोनों से आजाद हो और राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी स्थापित हो। जून 1946 में महात्मा गाँधी ने कहा था कि आजादी मिलने के 6 महीने के बाद पुरे देश की भाषा हिंदी हो जाएगी और सरकार के सारे काम काज की भाषा हिंदी हो जाएगी। संसद और विधानसभाओं की भाषा हिंदी हो जाएगी। और गाँधी जी ने घोषणा कर दी थी कि जो संसद और विधानसभाओं में हिंदी में बात नहीं करेगा तो सबसे पहला आदमी मैं होऊंगा जो उसके खिलाफ आन्दोलन करेगा और उनको जेल भेजवाऊंगा। भारत का कोई सांसद या विधायक अंग्रेजी में बात करे उस से बड़ी शर्म की बात क्या हो सकती है। लेकिन आजादी के बाद सत्ता गाँधी जी के परम शिष्यों के हाथ में आयी तो वो बिलकुल उलटी बात करने लगे। वो कहने लगे कि भारत में अंग्रेजी के बिना कोई काम नहीं हो सकता है। भारत में विज्ञान और तकनिकी को आगे बढ़ाना है तो अंग्रेजी के बिना कुछ नहीं हो सकता, भारत का विकास अंग्रेजी के बिना नहीं हो सकता, भारत को विश्व के मानचित्र पर बिना अंग्रेजी के नहीं लाया जा सकता। भारत को यूरोप और अमेरिका बिना अंग्रेजी के नहीं बनाया जा सकता। अंग्रेजी विश्व की भाषा है आदि आदि। गाँधी जी का सपना गाँधी जी के जाने के बाद वहीं खतम हो गया। भारत में आज हर कहीं अंग्रेजी का बोलबाला है। भारत की शासन व्यवस्था अंग्रेजी में चलती है, न्यायालयों की भाषा अंग्रेजी है, दवा अंग्रेजी में होती है, डॉक्टर पुर्जा अंग्रेजी में लिखते हैं, हमारे शीर्ष वैज्ञानिक संस्थानों में अंग्रेजी है, कृषि शोध संस्थानों में

विकास कुमार गुप्ता
विकास कुमार गुप्ता

अंग्रेजी है, भारत में ऊपर से ले के नीचे के स्तर पर सिर्फ अंग्रेजी, अंग्रेजी और अंग्रेजी है।”

“1965 में 15 वर्ष पुरे होने पर राष्ट्रभाषा हिंदी बनाने की बात हुई तो दक्षिण में दंगे शुरू हो गए और  भारत सरकार के खुफिया विभाग कि ये रिपोर्ट है कि वो दंगे प्रायोजित थे सरकार की तरफ से। ये उन नेताओं द्वारा करवाया गया था जो नहीं चाहते थे कि अंग्रेजी को हटाया जाये। (ये ठीक वैसा ही था जैसे वन्देमातरम के सवाल पर मुसलमानों को गलत सन्देश देकर भड़काया गया था) तो यहाँ केंद्र सरकार को मौका मिल गया और उसने कहना शुरू किया कि हिंदी की वजह से दंगे हो रहे हैं तो अंग्रेजी को नहीं हटाया जायेगा। इस बात को लेकर 1967 में एक विधेयक पास कर दिया गया। इतना ही नहीं 1968 में उस विधेयक में एक संसोधन कर दिया गया जिसमे कहा गया कि भारत के जितने भी राज्य हैं उनमे से एक भी राज्य अगर अंग्रेजी का समर्थन करेगा तो भारत में अंग्रेजी ही लागू रहेगी, और आपकी जानकारी के लिए मैं यहाँ बता दूँ कि भारत में एक राज्य है नागालैंड वहां अंग्रेजी को राजकीय भाषा घोषित कर दिया गया है। ये जो गन्दी राजनीति इस देश में आप देख रहे हैं वो अभी गन्दी नहीं हुई है ये अंग्रेजों से अनुवांशिक तौर पर हमारे नेताओं ने ग्रहण किया था और वो आज भी चल रहा है।”

भारत में जो राज्यों का बटवारा भाषा के हिसाब से हुआ वो गलत था | भारत क़ी रह पाकिस्तान में भी कई भाषाएँ हैं और वहां पंजाबी सबसे लोकप्रिय भाषा है | इसके अलावा वहां पश्तो है , सिन्धी है , बलूच  है लेकिन उर्दू मुख्य जोड़ने वाली भाषा है | ये जो इच्छाशक्ति पाकिस्तान ने दिखाई थी वो भारत के नेताओं ने नहीं दिखाया |
आज़ादी के पहले भारत में जो collector हुआ करते थे उनकी पोस्टिंग किसी जिले में इसी आधार पर होती थी क़ि वो वहां की भाषा जानते हैं क़ी नहीं | लेकिन अब इस देश में ऐसा कोई नियम नहीं है | आपको कोई भाषा आती हो या नहीं आती है अंग्रेजी आनी चाहिए किसी जिले का collector बनने के लिए |
अंग्रेजी को ले के लोगों में भ्रांतियां
अंग्रेजी को ले के लोगों के मन में तरह तरह कि भ्रांतियां हैं मसलन
अंग्रेजी विश्व भाषा है
अंग्रेजी सबसे समृद्ध भाषा है
अंग्रेजी विज्ञान और तकनीकी कि भाषा है
क्या वाकई अंग्रेजी विश्व भाषा है ? पूरी दुनिया में लगभग 200 देश हैं और उसमे सिर्फ 11 देशों में अंग्रेजी है यानि दुनिया का लगभग 5 % | अब बताइए कि ये विश्व भाषा कैसे है? अगर आबादी के हिसाब से देखा जाये तो सिर्फ 4 % लोग पुरे विश्व में अंग्रेजी जानते और बोलते हैं | विश्व में सबसे ज्यादा भाषा जो बोली जाती है वो है मंदारिन (Chinese) और दुसरे स्थान पर है हिंदी और तीसरे स्थान पर है रुसी (Russian) और फिर स्पनिश इत्यादि लेकिन अंग्रेजी टॉप 10 में नहीं है | अरे UNO जो कि अमेरिका में है वहां भी काम काज की भाषा अंग्रेजी नहीं है बल्कि फ्रेंच में काम होता है वहां |
क्या वाकई अंग्रेजी समृद्ध भाषा है ? किसी भी भाषा की समृद्धि उसमे मौजूद शब्दों से मानी जाती है | अंग्रेजी में मूल शब्दों की संख्या मात्र 65,000 है | वो शब्दकोष (dictionary) में जो आप शब्द देखते हैं वो दूसरी भाषाओँ से उधार लिए गए शब्द हैं | हमारे बिहार में भोजपुरी, मैथिली और मगही के शब्दों को ही मिला दे तो अकेले इनके शब्दों की संख्या 60 लाख है| शब्दों के मामले में भी अंग्रेजी समृद्ध नहीं दरिद्र भाषा है | इन अंग्रेजों की जो बाइबिल है वो भी अंग्रेजी में नहीं थी और ईशा मसीह अंग्रेजी नहीं बोलते थे | ईशा मसीह की भाषा और बाइबिल की भाषा अरमेक थी | अरमेक भाषा की लिपि जो थी वो हमारे बंगला भाषा से मिलती जुलती थी, समय के कालचक्र में वो भाषा विलुप्त हो गयी |
मैं दावें के साथ कह रहा हूं कि जितना भी घूस विदेशी कंपनीयां हमारे टाॅप के नेताओं को देती है और वे उन्हें पहले स्वीटजरलैण्ड तक जमा कराने पहुंचते थे। अगर वे ईमानदारी से स्वदेशी का भला सोंचते तो उसे हजार गुना ज्यादा उन्हें बिना विदेशियों को ईमान बेचे ही मिल जाता। अगर विदेशी कंपनी किसी प्रोजेक्ट के लिये हमारे नेताओं को 1000 करोड़ का रिश्वत देती है तो समझ लीजिये उस प्रोजेक्ट से वह भारत का लाखों करोड़ चूस के ले जाती है। अगर हमारे नेता अपना ईमान नहींे बेचते तो वह लाखों करोड़ की संपदा अथवा धन भारत में ही रहता और अंततः हमारे टाॅप के लोगों तक हीं पहुंचता और उससे सर्वहारा वर्ग भी लाभान्वित होता। “
हमारे संविधान के अनुच्छेद 344 ”राष्ट्रपति, इस संविधान के प्रारंभ से पांच वर्ष की समाप्ति पर और तत्पश्चात् ऐसे प्रारंभ से दस वर्ष की समाप्ति पर, आदेश द्वारा, एक अयोग गठित करेगा जो एक अध्यक्ष और आठवी अनुसूचि में विनिर्दिष्ट विभिन्न भाषाओं का प्रतिनिधित्व करने वाले ऐसे अन्य सदस्यों से मिलकर बनेगा जिनकों राष्ट्रपति नियुक्त करे और आदेश में आयोग द्वारा अनुसरण की जाने वाली प्रक्रिया परिनिश्चित की जाएगी।  फिर उसके बाद अनुच्छेद 345 में राज्य की राजभाषाओं का विवरण दिया गया है। और इसमें कहा गया है कि अनुच्छेद 346 और अनुच्छेद 347 के उपबंधों के अधीन रहते हुए, किसी राज्य का विधान मंडल, विधि द्वारा, उस राज्य में प्रयोग होने वाली भाषाओं में से किसी एक या अधिक भाषाओं को या हिन्दी को उस राज्य के सभी या किन्ही शासकीय प्रयोजनों के लिए प्रयोग की जाने वाली भाषा या भाषाओं के प्ररूप में अंगीकार कर सकेगा।”
उसके बाद संविधान के अनुच्छेद 346 में राज्य की राजभाषा से सम्बन्धित और अनुच्छेद 346 में एक राज्य और दूसरे राज्य बीच या किसी राज्य और संघ के बीच पत्रादि की राजभाषा को परिभाषित किया गया है। और अनुच्छेद 347 में किसी राज्य की जनसंख्या के किसी अनुभाग द्वारा बोली जाने वाली भाषा के संबंध में बताया गया है।
1955 में एक समिति बनाई गयी, उस समिति ने अपनी रिपोर्ट में कह दिया कि देश में अंग्रेजी हटाने का अभी अनुकूल समय नहीं है। 1963 में संसद में हिंदी को लेकर बहस हुई कि अंग्रेजी हटाया जाये और हिंदी लाया जाये।
कूटनीति का एक सिद्धान्त है कि अगर कोई आन्दोलन अपने उग्र रूप में हों तो उसके साथ चलते रहिये और आन्दोलन को मानने से भी इंकार करते रहिये। एक समय ऐसा आयेगा जब आन्दोलन थक जायेगा। फिर उसे कुचल मारिये और उसे मानने से इंकार कर दीजिये। बहुत समय पहले की एक घटना है। एक अंतरिक्ष विशेषज्ञ गांव की एक पगडंडी से होकर जा रहा था। वह अंतरिक्ष विशेषज्ञ रास्ते से भटककर एक छोटे से कुंए में जा गिरा। फिर क्या आधी रात को वह अपने बचाव के लिये आवाज लगाता रहा। पास ही एक बुढ़ी औरत रहती थी। आवाज़ सुनकर वह पास आयी। और रस्सी को उस अंतरिक्ष यात्री को बचाने के लिये फेका फिर बहुत प्रयास के बाद वह अंतरिक्ष यात्री बाहर निकला। बाहर निकलते ही उस अंतरिक्ष यात्री ने कहा ”माताजी हम बहुत बड़े अंतरिक्ष विशेषज्ञ हैं, बड़े-बड़े राजा-महराजा हमसे अंतरिक्ष और आकाश के बारे में जानकारी लिया करते हैं“ इसपर उस औरत ने कहा कि सब ठीक है बेटा लेकिन जब तुम अपने आगे की जमीन की ही जानकारी नहीं रखोगे तो तो फिर अंतरिक्ष और आकाश की जानकारी रखकर क्या करोगे। कुछ यही हाल हमारे देश के लोगों का है हम हमेशा अपने तरफ कम लेकिन यूरोप के देशों के तरफ देखते रहते है। हम यह नहीं देखते की यूरोपवासी सिर्फ एक भाषा का प्रयोग शिक्षा से लेकर हर जगह करते है। अगर यूरोपवासी एक भाषा का प्रयोग हर जगह करते है तो हमें भी एक ही भाषा का प्रयोग करना चाहिए। लेकिन भारत में मामला ठीक इसके विपरित है। हमारे नये-नवेले होनहार बी.टेक, एमबीए, डिप्लोमा, डिग्री करते तो है लेकिन उसका प्रोजेक्ट और उससे सम्बन्धित कार्य अंग्रेजी में करते है। विचारणीय है कि एक अरब 30 करोड़ की जनसंख्या वाले भारत में मात्र 3 प्रतिशत जनसंख्या अंग्रेजी बोलने और समझने वालों की है। और उस देश में 100 प्रतिशत जनता अंग्रेजी को लेकर परेशान है। तो ये छात्र अपने प्रोजेक्ट बनाने को लेकर इंटरनेट से काॅपी पेस्ट का सहारा लेते है।  दो-दो भाषा की अनिवार्यता की स्थिति उत्पन्न होने पर वे किंकर्तव्यविमुढ़ हो जाते है। और उनका ज्यादातर समय ट्रान्सलेशन में व्यय हो जाता है। “अंग्रेजी या विदेशी भाषा में हम केवल Copy Pasting कर सकते है | और मातृभाषा छोड़ के हम अंग्रेजी के पीछे पड़े हैं तो अंग्रेजी में हमें छः गुना ज्यादा मेहनत लगता है | हम लोगों ने बचपन में पहाडा याद किया था गणित में आपने भी किया होगा और मुझे विश्वास है क़ि वो आपको आज भी याद होगा लेकिन हमारे बच्चे क्या पढ़ रहे हैं आज भारत में वो पहाडा नहीं टेबल याद कर रहे हैं | और मैं आपको ये बता दूँ क़ि इनका जो टेबल है वो कभी भी इनके लिए फायदेमंद नहीं हो सकता | जो पढाई हम B.Tech या MBBS की करते हैं  अगर वो हमारी मातृभाषा में हो जाये तो हमारे यहाँ विद्यार्थियों को छः गुना कम समय लगेगा मतलब M .Tech तक की पढाई हम 4 साल तक पूरा कर लेंगे और वैसे ही  MBBS में भी हमें आधा वक़्त लगेगा | इस विदेशी भाषा से हम हमेशा पिछलग्गू ही बन के रहेंगे | दुनिया का इतिहास उठा के आप देख लीजिये, वही देश दुनिया में विकसित हैं जिन्होंने अपनी मातृभाषा का उपयोग अपने पढाई लिखाई में किया |”
 एक बार एक वैज्ञानिक सम्मलेन हुआ। उसमें भारत के एक वैज्ञानिक वहां पहुंचे। जब भारतीय वैज्ञानिक ने अपने शोध पत्र को पढ़ना शुरू किया तो एक वैज्ञानिक ने कहा कि आपके देश की मातृभाषा तो हिन्दी है तो फिर आप अंग्रेजी में अपना शोध पत्र क्यों पढ़ रहे है। तो फिर इस भारतीय वैज्ञानिक ने कहा कि हिन्दी वैश्विक भाषा नहीं है और फिर हिन्दी में पढ़ने पर सबको समझ में भी तो नहीं आयेगा। तो फिर उस वैज्ञानिक ने कहा कि आप उसकी चिन्ता क्यो करते है। यहां बहुत से वैज्ञानिक है जिन्होंने अपने शोध पत्र को फ्रेंच, जापनीज, मंडारिन, पूर्तगीज़, हिब्रू, रशीयन आदि भाषा में पढ़ रहे हैं तो उनके भाषा को भी सभी लोग नहीं समझ पा रहे और जब उनके भाषा को सब नहीं समझ पा रहे तो आप क्यों चिंतित है। जरूरी भाषा नहीं वरन आपकी खोज और आपके शोध की है। आपका शोध यदि महत्वपूर्ण है तो वो चाहे जिस भाषा में हो वह अमूल्य है। और हमने ऐसी व्यवस्था भी कर रखी है कि आप चाहे विश्व के किसी भी भाषा में अपने शोध पत्र को पढ़ेंगे हम उसका अनुवाद करवा लेंगे। और उसे समझ लिया जायेगा। तब इस भारतीय वैज्ञानिक की स्थिति किंकर्तव्यविमुढ़ वाली हो गयी। और ये बेचारे चुप हो गये। कोई जरूरी नहीं की आप दूसरे के हिसाब से अपने भाषा का चयन करें। क्या अंग्रेज आपके लिये हिन्दी भाषा का चयन करते है कतई नहीं तो फिर आप अपने भाषा को क्यों बदलते है। और बदलते है तो फिर किस-किस भाषा में बदलेंगे। प्रश्न यह उठता है मौलिकता का गला हम कब तक घोटेंगे? क्या हम स्वयं के मौलिकता को जीवित रखने में असमर्थ है। जब उत्तर प्रदेश जितना बड़ा जापान अपने मौलिकता को जीवित रख पाने और विश्व के विकसित राष्ट्रों में स्थान बनाने के कृतसंकल्प और तथस्थ है तो फिर हम अरबों की जनसंख्या वाले भारत को विश्व मानस पटल पर मौलिकता के साथ अपने प्रस्तुत नहीं कर सकते क्या?
तत्पश्चात् सबसे महत्वपूर्ण अनुच्छेद 348 है जिसमें सीधा प्राविधान किया गया है कि ”(क) उच्चतम न्यायाल और प्रत्येक उच्च न्यायालय में सभी कार्यवाहियां अंग्रेजी भाषा में होंगी,” उसके बाद इसी अनुच्छेद के उपअनुच्छेद (3) में कहा गया है कि ”इस संविधान के अधीन अथवा संसद या किसी राज्य के विधान-मंडल द्वारा बनाई गई किसी विधि के अधीन निकाले गए या बनाए गए सभी आदेशों, नियमों, विनियमों और उपविधिों के प्राधिकृत पाठ अंग्रेजी भाषा में होंगे“
प्रश्न उठता है कि आखिर अंग्रेजी ही क्यों तमिल, उर्दू, संस्कृत, भोजपुरी, मराठी क्यों नहीं तो इसका उत्तर है कि भारत के रसूखदार, जमिन्दार, राजे-रजवाड़े खानदान वाले जो घीस-घीसकर अंग्रेजी सीख लिये थे उसका क्या वे आचार डालते कतई नहीं। जैसे प्राचीन समय राजे-रजवाड़े अपने रसूख के लिये अन्ये वस्तुओं का प्रयोग करते थे ठीक वैसे ही अब उनके लिये अंग्रेजी एक हथियार बनकर जो उभरा था और वे इसे अच्छे से समझने भी लगे थे। तब उन्हें यह मन ही मन गुदगुदी करने वाला भी मुद्दा लगा और अंधे के हाथ बटेर मिलने वाली घटना प्रतीत हुई। जवाहर लाल नेहुरू ब्रिटेन से पढ़े लिखे थे सो उनके लिये अंग्रेजी की कोई दिक्कत नहंी थी और भारतीय नेताओं में अपवाद के साथ बहुतेरे अंग्रेजी का रट्टा मार ही रहे थे। सो उन्होंने भी मौन सहमति प्रदान की। राम मनोहर लोहिय जिन्दगी भर विरोध करते रहे अंग्रेजी का। इधर के नेताओं में शरद यादव ऐसे नेता है जो अक्सर लोकसभा में अंग्रेजी को लेकर अपना विरोध दर्ज कराते रहते है। एक बार शरद यादव ने लोकसभा में कहा था ”ट्रान्सलेशन से कोई भी आविष्कार नहीं होने वाला” एक उक्ति और याद आ रहा है ”गमले में खेती करने से कुछ नहीं होने वाला और सही में 3 प्रतिशत जब अंग्रेजी जानने समझने वालों की जनसंख्या हो तो उसे गमलें बराबर ही कहा जायेगा।
उसके बाद संविधान का 349 और 350 भी राजभाषा से संबंधित है जोकि 344 और अन्य अनुच्छेदों से इसके सम्बन्धों को जोड़ने का प्रयास करता है। संविधान का अनुच्छेद 351 महत्वपूर्ण हैं जिसमें कहा गया है ”संघ का यह कर्तव्य होगा कि वह हिन्दी भाषा का प्रसार बढ़ाए, उसका विकास करें जिससे वह भारत की सामासिक संस्कृति सभी तत्वों की अभिव्यक्ति का माध्यम बन सके और उसकी प्रवृत्ति में हस्तक्षेप किए बिना हिन्दुस्तानी में और आठवीं अनुसूचि में विनिर्दिष्ट भारत की अन्य भाषाओं में प्रयुक्त रूप, शैली और पदों को आत्मसात करते हुए और जहां आवश्यक या वांछनीय हो वहां उसके शब्द-भंडार के लिए मुख्यतः संस्कृत से और गौणतः अन्य भाषाओं से शब्द ग्रहण करते हुए उसकी समृद्धि सुनिश्चित करें।”
देश आजाद तो 1947 में हुआ और हिन्दी का विकास हमारे सरकारों ने ऐसा किया कि आज सभी इंजीनियरिंग, मेडिकल से लेकर सभी महत्वपूर्ण संस्थाओं की भाषा प्रायः अंग्रेजी ही है लेकिन निहायत शर्म की बात है कि इसमें पढ़ने वाले 97 फीसदी बच्चों की मातृभाषा हिन्दी अथवा आठवी अनुसूचि में विनिर्दिष्ट अन्य भाषायें है। आप स्वतः समझ सकते है कि कोई भी छात्र एक साथ दो भाषाओं का मौलिक प्रयोग कैसे कर पायेगा। लेकिन भारतीय नीति नियंताओं को इसमें फायदा है। क्योंकि वे खुद नहीं चाहते की भारत का सर्वहारा वर्ग तरक्की करें।
लेकिन हमारे ढांचा गिरने के कागार पर पहुंच चुके है अतः कोई भी उस ढांचे को सही करने अथवा उसे बनाने के लिये आगे नहीं आना चाहता। बहुत प्राचीन घटना है ”एक चर्च था जो इतना जर्जर हो चुका था कि कब गिर जाये उसका ठीक न था। आंधी चलती, बिजली कड़कती तो लोग घर से बाहर आकर चर्च को देखते कि गिरा की नहीं। चर्च के जो पादरी थे वे घर-घर जाकर चर्च में आने की प्रार्थना तो करते लेकिन स्वयं वे कभी भी चर्च में नहीं जाते थे। मीटिंग भी करते तो चर्च के बाहर। एक दिन मीटिंग में नया चर्च बनाने को लेकर प्रस्ताव पारित हुआ। चार प्रस्ताव पारित किये गये जिसमें पहला था कि जो नया चर्च बनेगा वह पुराने चर्च के स्थान पर ही बनेगा, दूसरा ये कि जो नया चर्च बनेगा उसमें पुराने चर्च की लक़िडया और ईंटे प्रयोग में लायी जायेंगी और, तीसरा ये की जैसा पुराना चर्च था ठीक वैसा ही नया चर्च भी बनेगा और चैथा ये की जब तक नया चर्च बन नहीं जाता पुराना चर्च नहीं तोड़ना।“ विचारणीय है कि जब तक पुराना तोड़ा नहीं जाता नया कहां से बन जायेगा? ठीक यही स्थिति भारत का भी है। जब तक भाषिक परतंत्रता को खतम नहीं किया जाता तब तक मौलिकता का समावेश होना मुमकिन नहीं। जब सम्पूर्ण धरा के सभी वैज्ञानिक, डाॅक्टर, इंजीनियर, लेखक से लेकर सभी बुद्धीजीवी सोंचने से लेकर शोध तक सिर्फ एक भाषा का प्रयोग कर रहे हैं तो आखिर हम क्यों दो अथवा अनेकों भाषा के फेर में पड़े। दरअसल हमारें अनेकों भाषाओं के फेर के वजह से हम कोई भी अन्वेषण कर पाने में असफल हैं। क्योंकि भाषा की आत्मा से बेबूझ हम परेशान है।
एक पुरानी कहावत है एक बार एक संन्यासी दीक्षा प्राप्त करने के लिये एक प्रख्यात गुरु के पास गया और शिक्षा ग्रहण ही कर रहा था कि एक दिन किसी दूसरे संन्यासी का आना हुआ। नये संन्यासी ने आते ही वेदों, पुराणों का उद्धरण दे-देकर अपने ज्ञान का प्रभाव जमा रहा था। शिक्षारत संन्यासी भी काफी प्रभावित हुआ। 2 घंटे लगातार बोलने के बाद जब संन्यासी ने गुरु से अपने ज्ञान के बारे में पुछा तब गुरु ने कहा बेटा ये दो घंटे तुमने जो बोला वह तुमने नहीं वेदों और पुराणों ने बोला तुमने क्या बोला? इसमें तुम्हारा कुछ भी नहीं था। जिस दिन तुम्हें लगने लगे की तुम स्वयं बोलने में समर्थ हो गये उस दिन मेरे पास आना। और वह नवागत संन्यासी वापस ज्ञानाभ्रमण के लिये चला गया।
क्यों जबरदस्ती हमारे देश के होनहारों पर अंग्रेजी थोपी जा रही है। अभी कुछ समय पहले एक आई.ए.एस से मेरी हिन्दी अंग्रेजी को लेकर चर्चा हो रही थी। ये आइएएस महोदय अंग्रेजी के तारिफों के पुल बांधे जा रहे थे। फिर मैंने अंग्रेजी की एक कविता उन्हें दी और कहा इसका अर्थ बताइयें फिर क्या था, वह आइ.ए.एस. महोदय बगले झांकने लगे। भाषा जानना और उसकी आत्मा को समझना दो अलग पहलु है। हिन्दी हमारी आत्मा में बसती है। लेकिन अंग्रेजी को हम अनुवाद करके ही समझते है। हां अगर 1 अरब 25 करोण में एक से डेढ़ करोण लोग अच्छी अंग्रेजी वाले है भी तो उनकी वजह से 1 अरब 24 करोण लोगों पर अंग्रेजी थोपना प्रजातंत्र के सिद्धान्त के अनुसार क्या न्यायोचित माना जायेगा? जब देश के सबसे कठिन परीक्षा पास करने वाले अधिकारियों का ये हाल है तो फिर आम जनता की स्थिति का आंकलन स्वतः किया जा सकता है। आज भी सरकारी कार्यालयों में इतने नियम है कि उन्हें समझने के लिए सालों लग जाते है। भाषा के चलते आ रहे समस्याओं के समाधान हेतु राजभाषा नियम 1976 बनाया गया था लेकिन इसका समुचित अनुपालन आज तक नहीं हो पा रहा। आज भी हमारी सरकार की सभी वेबसाइटे अंग्रेजी की शोभा बढ़ा रही है। आखिर आम जनता अंग्रेजी को क्यो पढ़े।
भाषा की समस्या ही मुख्य समस्या है इस देश में। देश में क्या हो रहा है उसकी समझ आम जनता के परे है। सब रट्टा मार प्रतियोगिता करने में भागे जा रहे हैं। हमारे बगल में चाइना दिन-दूनी रात चैगूनी कर रहा है और वहां सभी कार्य उसके अपने भाषा में हो रहे है। जापान निरन्तर उन्नती कर रहा है और उसके यहां भी सभी कार्य उसके अपने भाषा में हो रहे है और भी अनेको देश है जो निज भाषा का प्रयोग कर उन्नती की अग्रसर है। लेकिन हमारी सरकार का अंग्रेजी मोह नहीं छुट रहा। हमारे देश के होनहार बच्चों को अंग्रेजी की चक्की में पीसा जा रहा है। संभ्रान्त, रसूखदार और ऊँचे तबके के लोग शुरू से ही अपने बच्चों को अंग्रेजी शिक्षा की चक्की का आंटा खिला रहे है और हमारी सरकारे आज तक अन्य भारतीय भाषाओं की उन्नति की जगह अंग्रेजी भाषा की उन्नती करती जा रही है। और ऐसा सिर्फ सरकारी मांग की वजह से हो रहा है। क्योंकि हमारी सरकार और उनके द्वारा बुलायी गयी हजारों बहुराष्ट्रीय कंपनीय अंग्रेजी के जानकारों को खोज रही है। ।
भाषा की समस्या का खत्म करने के लिए हमें अपने देश को भाषा के हिसाब से बांटना होगा। और जिस राज्य की जो भाषा होगी उस राज्य में उसी में भाषा में हाईकोर्ट में जिरह और फैसले होने चाहिये। मतलब एक ही भाषा का प्रयोग सभी कार्यों के लिये। शिक्षा से लेकर शोध तक। सरकारी, प्राईवेट से लेकर हर जगह उसी भाषा का प्रयोग। इससे क्या होगा मौलिकता आयेगी। ट्रान्सलेशन से बचाव होगा। और कोई भी अहिन्दी भाषी हिन्दी और अन्य भाषाओं के लिए उर्जा नष्ट करने से बचेगा तथा हिन्दी भाषी अन्य दूसरी भाषा के प्रयोग से बचेंगे। अगर किसी को हिन्दी से कुछ ज्यादा प्रेम है तो वे भारत सरकार द्वारा घोषित हिन्दी भाषी क्षेत्र राजस्थान, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, बिहार, दिल्ली, हिमाचल प्रदेश, अंडमान निकोबार द्विप समूह आदि राज्यों में जाकर अपने हिन्दी ज्ञान का प्रयोग करें और अगर किसी को गुजराती से प्रेम हो तो वह गुजरात जाये। और अंग्रेजी से प्रेम हो तो नागालैण्ड। प्राविधान यह होना चाहिये कि जिस राज्य की जो भी भाषा है अगर उस राज्य में नौकरी करनी हो तो उसी राज्य की भाषा में सभी कार्य करने होंगे। जबतक हम देश को भाषा के हिसाब से नहीं बांटते और सिर्फ और सिर्फ एक भाषा का राग अलापेंगे तबतक अंग्रेजी ही विकल्प बनी रहेगी। केन्द्रीय स्तर पर भाषा के व्यवधान को भाषा के हिसाब से बेंच बनाकर इसका निराकरण कर सकते है। जैसे न्याय व्यवस्था को लेकर सुप्रीम कोर्ट में सभी राज्यों के उनके भाषाओं के अलग-अलग बेंच बनाकर। लोकसभा में पहले से ट्रांसलेशन की सुविधा हैं ही।
लेखक विकास कुमार गुप्ता pnews.in के सम्पादक है इनसे 9451135555 पर सम्पर्क किया जा सकता है।

2 thoughts on “सुप्रीम कोर्ट की सभी भाषाओं की अलग-अलग बेंच हो-2”

  1. aacha likhte ho sir but yesa kuch nahi hone vaala .main to kheta hun ki behtar hoga in bekar ki indian languages ko ban kar ke .yes ban taki koi confusion na rahe .vo na kisi offical work mein use ho na kisi school mein aur na hi kisi public gathering mein .2 3 generations ke baad jab sab english ko hi bolenge to hindi ki kaun chinta karega .yaar jab hamari hindi ko maarna hi chahti hai to izzat se mare na yeh english aur hindi ki debate ne mujhe pagal kar diya hai.khamkha rayata phela rakha hai hindi aur english premion ne .Declare english national and only one official language at home and medium of education and entertainment.ek do genration tak problem aaygi phir sab thik ho jayega jab nayi pidi ki matrbhasha bhi english hogi to unme sarjnatmakta yevam molikta bhi aajayegi aur desh ka vikas bhi ho jayega .Indian langauges are useless and remain useless because we are thought to hate every thing which is made in India but to love even if its tatti if its made in a foreign nation so English is the best option.aaj kal to vese sehero mein log apne bacho se english mein hi baat karte hain acchi suruat hai bas ab abhiyaan ko gavm gavm aur ghar ghar phunchana hai aur iska naara hai “Speak only english if you wanna live in India and if you can’t then that mean you are a sinner “.
    band karo yaar yeh bhashon ki ladayi sar mein dard kar diya hai .sirf English bolo aur sari tension dur karo because its our national language for every practical reason.

    • dear associate ji dekhiye sirji … 100 log mar rahe ho aur aapo do option diya ki ya 3% english walo ko bacha lo aur sab kuchh unke hisab se kar athva 97% indian language ko bacha lo … to aapk kise chunengne …

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