मेंढक उछल कूद करने लगे है और टर्राने लगे है लगता है बरसात का मौसम आने वाला है…
मदारियों की डफली की आवाज भी अब सुनाई देने लगी है,लगता है कोई सांप-नेवले का खेल होने वाला है…
सब नए रंग नए ढंग में अपना अपना धंदा जमा रहे है,कोई सन्देश तो कोई सुराज के ख़्वाब पाल रहे है…
हर बात से रहते है अब तो सभी खबरदार, क्यों की भाई अब तो आमजन भी हो चुका है समझदार…
शब्दों के बोने तीरों से हुआ है हमला जो,सुना है चुभने लगा है तलवार और भाले सा वो…
देखो समय क्या क्या रूप दिखाता है किसे सड़क पर और किसे गद्दी पर बैठाता है…
दम तो था बात में कि सुराज नहीं निकलता महलों से, अब तो इंतज़ार है कि कैसा जवाब निकलता है महलों से…
कैसे कर पायेगी वो सामना उस मैदान में,जहा डाल दिए गए थे पत्थर हजारो इक रात में…
हाँ सच है छिप जाते है सारे दाग अँधेरी रात में,बस फिर रह जाते है कोरे चर्चे इस बाज़ार में…
शब्दों का युद्ध जो छिड़ा है इस मैदान में, शायद इसका जवाब भी मिलेगा उसी मैदान में…
-पीयूष राठी, केकडी