गुरबत का सूद

Devi N 2नहीं चुका पाऊंगी मैं
उस बनिए के बिल को
गिरवी जिसके पास
रखी है मेरी गुरबत
यही तो मेरी पूंजी है
जो निरंतर बढ़ती जा रही है
कर्ज़ के रूप में
जिसे खाती जा रही है
जिसे निगलती जा रही है
मेरी इच्छाओं की भूख!!
और साथ उसके
बढ़ रहा है सूद भी
हाँ सूद! उन पैसों पर
जो मैंने कभी लिए ही न थे!
हाँ! पेट की खातिर ले आई थी
दो मुट्ठी आटा, चार दाने चावल
कभी दाल तो कभी साबू दाने
उबाल कर अपने ही गुस्से के जल में
पी जाती हूँ ।
पिछले कई सालों से
हाँ गुज़रे कई सालों से लगातार
झुकते झुकते
मेरी गुरबत की कमर
अब दोहरी हो गई है
न कभी सीधी हुई, न होगी
अमीरों के आगे
कर्ज़दार थी, है, और रहेगी!!
क्या चुका पाएगी, वह कर्ज़ ,
वह कर्ज़ जो गुरबत ने लिया
उस सूदखोर अमीरी से।
न जाने
कितनी सदियाँ बीतेंगी
उसे चुकाने में
खुद को आज़ाद करा पाने में!!
-देवी नागरानी

4 thoughts on “गुरबत का सूद”

  1. Aap sabhee ka abhaar is pratikriya ke liye…Sahity ke madhyam se lekhak aur pathak ka ek rishta banta ja raha hai…shubhkamanyein

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