तेजाबी हमला : अदालत का सराहनीय कदम

विजय शर्मा
विजय शर्मा

-विजय शर्मा- देश की जनता की सुरक्षा करना सरकार का दायित्‍व होता है। मगर अफसोस कि देश की सरकार अदालती आदेशों के बाद भी जनहित से जुड़े मामलों में कोई दिलचस्‍पी नहीं लेती, ऐसे में अदालत को आक्रामक रवैया अख्‍तियार करना पड़ता है। आज देश की सर्वोच्‍च अदालत ने सरकार को तेजाबी हमले रोकने के लिए तेजाब बिक्री संबंधित फैसले लेने हेतु ‘डेडलाइन’ देकर एक सकारात्‍मक कदम उठाया है। यह भी सरकार के लिए किसी शर्मनाक बात से कम नहीं कि देश की अदालत जन सुरक्षा से जुड़े मुद्दों पर अक्‍सर उसको फटकार लगाती है।

लेकिन विडम्‍बना है कि सत्‍ता में बैठे मोटी चमड़ी वाले बार बार लगने
वाली फटकार के बावजूद भी कोई ठोस फैसला नहीं ले पाते, जो कार्य देश की
न्‍यायपालिका कर रही है, वे काम बिन कहे देश की सरकार को करना चाहिए। देश
की सत्ता में बैठी संप्रग का ध्‍यान विपक्ष में बैठा एनडीए भ्रमित करता
है। सरकार जनता से जुड़े मुद्दों पर ध्‍यान देने की बजाय उन मुद्दों और
बेहुदा बयानों पर समय खर्च करती है, जिनका जन सुरक्षा, जनहित से दूर दूर
तक कोई सरोकार नजर नहीं आता। सरकार विपक्ष की जान बुझकर बुनी चालों में
इतना उलझ जाती है कि उसको याद ही नहीं रहता कि देश जनता ने उसको चुना है।
जनहित उसके लिए सर्वोपरि होना चाहिए, लेकिन ऐसा लगता नहीं, वरना
सर्वोच्‍च अदालत को यह न कहना पड़ा, जो उसने अपने एक फैसले में कहा कि
यदि 16 जुलाई तक सरकार इस बारे में कोई नीति तैयार करने में विफल रहती है
तो फिर वह उचित आदेश पारित करेगी।

दरअसल, न्यायालय ने इससे पहले 6 फरवरी को केन्द्र सरकार को छह सप्ताह के
भीतर सभी राज्यों और केन्द्र शासित प्रदेशों के मुख्य सचिवों की बैठक
बुलाने और उसके तेजाब की बिक्री नियंत्रित करने के तरीकों, तेजाब के
हमलों के शिकार लोगों के उपचार, उनके लिए मुआवजा और पुनर्वास के मुद्दों
पर विचार करने का निर्देश दिया था। मगर सरकार अदालती फैसले का सम्‍मान
करने से चूक गई, क्‍यूंकि उसका ध्‍यान विपक्ष ने नरेंद्र मोदी पर जो अटक
दिया था।

पिछले कुछ सालों से तेजाबी हमलों का रुझान तेजी से बढ़ रहा है। इसका एक
कारण देश के अंदर इसको लेकर कोई कानून का न होना है। ऐसे अपराध भारतीय
दंड संहिता की धारा 329, 322 और 325 के तहत दर्ज होते हैं। दोषियों का
छूट जाना, तेजाब की बिक्री को लेकर सख्त नियम न होना, पीड़ितों के इलाज
को लेकर सरकार का गैर जिम्मेदार रवैया और पीड़ितों के मनोवैज्ञानिक और
आर्थिक पुनर्वास जैसी समस्याएं बताती हैं कि ऐसिड अटैक के मामले में
हमारी कानून व्यवस्था कितनी लचर है।

एक रिपोर्ट के मुताबिक 27 केस केवल 2010 में सामने आए, जबकि जनवरी 2002
से अक्‍टूबूर 2010 तक केवल 153 केस सामने आए, यह तो केवल वह मामले हैं जो
मीडिया की बदौलत सामने आए, हालांकि 2000 में 174 न्यायिक मामलों में दर्ज
हुए थे।

शर्म तो तब महसूस होती है, जब पता चलता है कि लॉ कमीशन ने कुछ समय पूर्व
ऐसे मामलों पर सरकार को त्वरित कार्यवाही करने की सलाह दी थी। हाल में
जस्टिस वर्मा कमेटी ने भी तेजाब हमलों से निपटने के लिये सरकार को आईपीसी
में विशेष प्रावधान जोड़ने की जरूरत बताई, पर जब इस मामले पर उम्रकैद का
प्रस्ताव रखा गया, तो संसद में माननीयों ने इसके खिलाफ वोट किया था।

उम्‍मीद है कि इस मामले पर सुप्रीम कोर्ट का सख्‍त रवैया देश में बढ़ रहे
तेजाबी हमलों से राहत दिलाने के लिए कारगार सिद्ध होगा। बंग्‍लादेश में
तेजाब बिक्री को सख्‍त बरती गई, लेकिन नतीजे उतने अच्‍छे नहीं आए, जितने
की उम्‍मीद थी, हालांकि इससे बंग्‍लादेशियों को थोड़ी सी राहत तो मिली
है। देश में हो रहे तेजाबी हमलों को रोकने के लिए सर्वोच्‍च अदालत की ओर
से उठाया जा रहा कदम एक सराहनीय कदम है।

चलते चलते इतना कहेंगे कि कानून भी किसी अपराध को होने से नहीं रोक सकते,
जब तक समाज अपराध से जुड़े लोगों का बहिष्‍कार नहीं करता। उदाहरण के तौर
पर कानूनी तो रेड लाइट क्रॉस को लेकर भी है। भले ही यह जुर्म बड़ा नहीं,
लेकिन जुड़ा तो हमारी सुरक्षा से है, सबसे ज्‍यादा इसी की अनदेखी की जाती
है। कहने का भाव अर्थ इतना सा है कि कुछ जिम्‍मेदारी देश के नागरिकों को
भी उठानी होगी। कानूनी कुछ हद तक ठीक हैं, लेकिन इन कानूनों का सहयोग आम
जनता को करना होता है।

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